________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 76 तथानध्यवसायोऽपि केषांचित्सर्ववेदिनि तत्त्वे। सर्वत्र वाग्गोचराहार्योऽवगम्यताम् // 19 // श्रुतविषये देशकालस्वभावविप्रकृष्टेऽर्थे संशयः / सौगतानामदृश्यसंशयैकान्तवादावलम्बनादाहार्योऽवसेयः। पृथिव्यादौ दृश्यमानेऽपि संशय: केषांचित्तत्त्वोपप्लववादावष्टंभात् / सर्ववेदिनि पुनः संशयोऽध्यवसायश्च केषांचिद्विपर्ययवदाहार्योऽवगम्यताम् / सर्वज्ञाभाववादावलेपात्सर्वत्र वा तत्त्वे केषांचिदन्योऽनध्यवसायः। संशयविपर्ययवत् “तर्कोऽप्रतिष्ठः श्रुतयो विभिन्ना नासौ मुनिर्यस्य वचः प्रमाणं। धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायां और तत्त्वोपप्लववादियों ने स्वकीय शास्त्र जन्य मिथ्या वासना द्वारा प्रत्यक्षयोग्य पदार्थों में भी संशयज्ञान ठान लिया है। उसी प्रकार किन्हीं विद्वानों के यहाँ सर्वज्ञ तत्त्व के विषय में संशयज्ञान और अनध्यवसाय ज्ञान भी हो रहा है। “सर्वज्ञ है या नहीं" - इस विषय का अभी तक उनको शास्त्रों में संशय रखना ही उपदिष्ट किया है। किसी-किसी ने तो सर्वज्ञ का अज्ञान सरीखा अनध्यवसायज्ञान होना अपने शास्त्रों मे मान लिया है। नास्तिकवादी या विभ्रमैकान्तवादी तो सभी तत्त्वों में अनध्यवसाय नामक मिथ्याज्ञान से युक्त हो रहे हैं। उक्त कहे गये सभी श्रुतज्ञान के संशय, विपर्यय, अनध्यवसायों में वचन के द्वारा विषयकृत आहार्यज्ञान कहा गया है, यह समझ लेना चाहिए। अर्थात् वक्ता या शास्त्र ही शब्दों द्वारा कहे जाने योग्य श्रुतज्ञान को मिथ्याज्ञानियों के प्रति उपदिष्ट कर सकता है। ___ सर्वज्ञोक्त श्रुतद्वारा विषय किये गये देशव्यवहित, कालव्यवहित और स्वभावव्यवहित अर्थों में बौद्ध जनों को अदृश्य एकान्तवाद का पक्ष ग्रहण कर लेने से आहार्य (गृहीत) श्रुतसंशय समझ लेना चाहिए। तथा परिदृश्यमान भी पृथ्वी आदि तत्त्वों में किन्हीं-किन्हीं विद्वानों के यहाँ तत्त्वोपप्लववाद का कदाग्रह होजाने से संशयज्ञान हो जाता है // 19 // _ फिर, प्रमाण सिद्ध सर्वज्ञ में किन्हीं मीमांसकों के यहाँ सर्वज्ञाभाव को कहने वाले पक्ष का ग्रहण करने से विपर्ययज्ञान के समान संशय और अनध्यवसाय अज्ञान भी आहार्य हो जाता है ऐसा जानना चाहिए। अथवा “सर्ववेदिनितत्त्वे" का अर्थ सर्वज्ञ नहीं कर "ज्ञान के द्वारा ज्ञात सम्पूर्ण तत्त्व' - इस प्रकार अर्थ करने पर यों व्याख्यान कर लेना कि सम्पूर्ण जीव, पुद्गल आदि तत्त्वों के प्रमाणसिद्ध होने पर किन्हीं * लौकायतिक या तीव्र मिथ्यादृष्टि के यहाँ इस वक्ष्यमाण कोरे प्रलाप का मात्र सहारा ले लेने से संशय और विपर्यय के समान अन्य अनध्यवसाय ज्ञान भी सम्पूर्ण तत्त्वों के विषय में उत्पन्न होता है। वह मूर्ख अधार्मिक, नास्तिक जनों का निरर्थक वचन इस प्रकार है कि तर्कशास्त्र या अनुमान कोई सुव्यवस्थित नहीं है जिससे कि तत्त्वों का निर्णय किया जाय। नित्यपन अनित्यपन आदि के समर्थन करने के लिए दिये गये कापिल, बौद्ध आदि के अनुमानों का परस्पर में विरोध है। वेद की श्रुतियाँ भी परस्पर विरुद्ध हिंसा, अहिंसा, सर्वज्ञ, सर्वज्ञाभाव, विधि, नियोग, भावना आदि विभिन्न अर्थों को कह रही हैं। कोई बौद्ध, कणाद, कपिल अथवा जिनेन्द्र आदि ऐसा मुनि नहीं हुआ जिसके वचन प्रमाण मान लिये जाँए। धर्म तत्त्व अंधेरी गुफा में छिपा हुआ है। अतः बड़े महान् पुरुष जिस मार्ग से जा चुके हैं, वही मार्ग है। चार्वाकसिद्धान्तानुसार इस प्रकार प्रलाप करने वालों के यहाँ अपने द्वारा कहे गये तत्त्व की भी प्रतिष्ठा नहीं हो पाती है।