________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 83 यतः साध्ये शरीरे स्वे धीमतो व्यभिचारता। जगत्कर्तुः प्रपद्येत तेन हेतोः कुतार्किकः // 51 // बोध्योऽनैकान्तिको हेतुःसम्भवान्नान्यथा तथा। संशीतिं विधिवत्सर्वः साधारणतया स्थितः॥५२॥ शब्दत्वश्रावणत्वादि शब्दादौ परिणामिनि / साध्यहेतुस्ततो वृत्ते: पक्ष एव सुनिश्चितः॥५३॥ संशीत्यालिङ्गिताङ्गस्तु यः सपक्षविपक्षयोः / पक्षे स वर्तमानः स्यादनैकान्तिकलक्षणः // 54 // तेनासाधारणो नान्यो हेत्वाभासस्ततोऽस्ति नः। तस्यानैकान्तिकेसम्यग्घेतौ वान्तर्गतिः स्थितिः॥५॥ प्रमेयत्वादिरेतेन सर्वस्मिन्परिणामिनि / साध्ये वस्तुनि निर्णीतो व्याख्यातः प्रतिपद्यतां // 56 // कर्त्तापने से विपरीत कारणमात्र जन्यत्व के साथ व्याप्ति से युक्त हैं। जिस प्रकार वह हेतु इस जगत् को बुद्धिमान कारण से जन्यपना सिद्ध करेगा, उसी प्रकार घट आदि दृष्टान्तों की सामर्थ्य से उस बुद्धिमान् कारण के अनेकत्व और शरीर सहितत्व को भी सिद्ध करेगा। पहले अन्य शरीर से सहित होती हुई ही आत्मा अपने शरीर की कर्ता होती है। शरीर से रहित मुक्तात्मा सर्वथा अपने शरीर की कर्ता नहीं है। क्योंकि अनादिकाल से ज्ञानावरण आदि कर्मों के समुदायरूप कार्मण शरीर के साथ संसारी आत्मा का संबंध हो जाने की सिद्धि है। अत: जगत् को बनाने वाले बुद्धिमान् के अपने शरीर के साध्य करने पर उस शरीर से ही अनेकान्त दोष आ जाता है। अर्थात्-बुद्धिमान् ने जिस शरीर से जगत् बनाया है उसका वह शरीर बुद्धिमान् का बनाया हुआ नहीं है, किन्तु कृतक है। अत: हेतु का प्रयोक्ता नैयायिक न्याय या तर्क को जानने वाला नहीं है। वह कुतर्कता है। अथवा विपक्ष में हेतु के वर्तने की सम्भावना हो जाने से वह विरुद्ध हेतु अनैकान्तिक हेत्वाभास समझना चाहिए अन्यथा विपक्ष में वृत्ति नहीं होने पर अनैकान्तिक नहीं है। पक्ष में वृत्तित्व की विधि के समान विपक्ष में रहने के कारण संशययुक्त सभी हेतु साधारणपने से व्यवस्थित हैं॥४८-५२ / / शब्द आदि पक्ष में परिणामीपन साध्य करने के लिए दिये गये शब्दत्व, श्रवणइन्द्रिय द्वारा ग्राह्यत्व, भाषावर्गणा निष्पाद्यत्व आदि हेतु यदि पक्ष में ही साध्य के साथ अविनाभावी होकर वृत्तिरूप से सुनिश्चित हैं तब तो वे सब सद्धेतु ही हैं परन्तु जो सपक्ष और विपक्ष में रहने के कारण संशय से जिन हेतुओं के शरीर का आलिंगन कर लिया गया है वह हेतु यदि पक्ष में वर्तमान है तो भी अनैकान्तिक हेत्वाभास के लक्षण से युक्त समझा जावेगा है। अतः स्याद्वादियों के यहाँ अनैकांतिक से भिन्न कोई दूसरा असाधारण नाम का हेत्वाभास नहीं माना गया है। वैशेषिकों के द्वारा स्वीकृत उस असाधारण हेत्वाभास का अन्तर्भाव अनैकान्तिक में अथवा समीचीन हेतु में हो जाता है।५३-५४॥ वैशेषिकों ने अनैकान्तिक हेत्वाभास के साधारण, असाधारण अनुपसंहारी ये तीन भेद किये हैं, जो हेतु सपक्ष और विपक्ष में वर्त जाता है, वह साधारण है तथा जो सपक्ष और विपक्ष दोनों से व्यावृत्त है, वह असाधारण हेत्वाभास है, जिसका अभाव नहीं हो सकता ऐसे केवलान्वयी पदार्थ को पक्ष बनाकर जो हेतु दिया जाता है, वह अनुपसंहारी है। प्रकरण में यह कहना है कि असाधारण नाम का हेत्वाभास नहीं है। विपक्ष में हेतु का नहीं रहना तो अच्छा ही है। सपक्ष में यदि हेतु नहीं रहता तो कोई क्षति नहीं है।