________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 67 न चेदं परिणामित्वमात्मनो न प्रसाधितम् / सर्वस्यापरिणामित्वे सत्त्वस्यैव विरोधतः // 21 // यतो विपर्ययो न स्यात्परिणामः कदाचन। मत्यादिवेदनाकारपरिणामनिवृत्तितः // 22 // सदसतोरविशेषाद्यदृच्छोपलब्धेरुन्मत्तवत् // 32 // किंकुर्वन्निदं सूत्रं ब्रवीतीति शंकायामाहसमानोर्थपरिच्छेदः सदृष्ट्यर्थपरिच्छिदा। कुतो विज्ञायते त्रेधा मिथ्यादृष्टेर्विपर्ययः॥१॥ इत्यत्र ज्ञापकं हेतुं सदृष्टान्तं प्रदर्शयत् / सदित्याद्याह संक्षेपाद्विशेषप्रतिपत्तये // 2 // आत्मा का यह परिणामीपना पूर्व प्रकरणों में भले प्रकार सिद्ध नहीं किया है, यह नहीं समझना। अर्थात् आत्मा परिणामी है, इसको अच्छी युक्तियों से सिद्ध कर चुके हैं। जैन सिद्धान्तानुसार सभी पदार्थ परिणामी हैं। सम्पूर्ण पदार्थों को या सब में एक भी वस्तु को यदि अपरिणामीपना माना जायेगा, तो उसकी जगत् में सत्ता रहने का ही विरोध हो जायेगा। अर्थात् परिणामीपन से सत्त्व व्याप्त है। व्यापक परिणामीपन के रहने पर ही व्याप्य सत्त्व ठहर सकता है। सम्पूर्ण पदार्थ उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से शोभित है। पूर्व आकारों का त्याग, उत्तर आकारों का ग्रहण और ध्रुवस्थितिरूप परिणाम सर्वत्र सर्वदा देखे जाते हैं। अत: आत्मा कूटस्थ नहीं है। जिससे कि कदाचित् भी मति आदि ज्ञानों के आकार वाले परिणामों की निवृत्ति हो जाने से आत्मा के विपर्ययरूप पर्यायें नहीं हो पातीं। अर्थात् परिणामी आत्मा के मिथ्यात्व का उदय हो जाने पर मति, श्रुत आदि ज्ञानों के आकारस्वरूप परिणामों की निवृत्ति हो जाने से कुमति आदि विपर्यय ज्ञान हो जाते हैं // 21-22 // . आचार्य विपर्यय ज्ञान के लक्षण को दृष्टान्तपूर्वक कहते हैं - विद्यमान और अविद्यमान अथवा प्रशंसनीय और अप्रशंसनीय अर्थों की विशेषता न करके यदृच्छापूर्वक उपलब्धि हो जाने से उन्मत्त पुरुष के समान जानने वाले मिथ्यादृष्टि के विपर्ययज्ञान हो जाते हैं। अर्थात् उन्मत्त पुरुष जैसे गौ में गाय है, ऐसा निर्णय कर लेता है और कदाचित् गौ को घोड़ा भी जान लेता है, माता को कभी स्त्री और कदाचित् माता भी कह देता है। उसी प्रकार मिथ्यादृष्टि जीव सत् और असत् पदार्थ में कोई विशेषता नहीं रखता हुआ चाहे जैसी मनमानी कल्पना करता है। अत: उसका घट में घट को जानने वाला भी ज्ञान विपर्यय ज्ञान ही है॥३२॥ किस नवीन अर्थ का विधान करते हुए श्री उमास्वामी महाराज ‘सदसतो' इत्यादि सूत्र को प्रस्पष्ट कर रहे हैं? ऐसी शंका का श्री विद्यानन्द आचार्य समाधान करते हैं - __जबकि सम्यग्दृष्टि आत्मा के अर्थों की परिच्छित्ति के समान ही मिथ्यादृष्टि आत्मा के भी अर्थों का परिच्छेद होता है, तो फिर कैसे विशेषरूप से जाना जाए कि मिथ्यादृष्टि के तीन प्रकार का विपर्ययज्ञान है। इस प्रकार यहाँ प्रकरण में जिज्ञासा होने पर दृष्टान्त सहित ज्ञापक हेतु को दिखलाते हुए श्री उमास्वामी महाराज ने संक्षेप में मिथ्याज्ञानों की विशेषता को समझाने के लिए 'सतसतोरविशेषाद्' इत्यादि सूत्र को कहा है // 1-2 //