________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 68 मिथ्यादृष्टेरप्यर्थपरिच्छेदः सदृष्ट्यर्थपरिच्छेदेन समानो भूयते तत्कुतोऽसौ त्रेधा विपर्यय इत्यारेकाया सत्यां दर्शनं ज्ञापकं हेतुमनेनोपदर्शयति / / के पुनरत्र सदसती कश्च तयोरविशेषः का च यदृच्छोपलब्धिरित्याहअत्रोत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सदिति वक्ष्यति / ततोऽन्यदसदित्येतत्सामर्थ्यादवसीयते / / 3 / / अविशेषस्तयोः सद्भिरविवेको विधीयते। सांकर्यतो हि तद्वित्तिस्तथा वैयतिकर्य्यतः // 4 // प्रतिपत्तिरभिप्रायमात्रं यदनिबन्धनं / सा यदृक्षा तया वित्तिरुपलब्धिः कथंचन // 5 // किमत्र साधयमित्याह मिथ्यादृष्टि का भी अर्थपरिज्ञान करना जब सम्यग्दृष्टि के अर्थ परिच्छित्ति के समान होता हुआ अनुभव में आ रहा है, तो फिर कैसे निर्णीत किया जाए कि वह विपर्ययस्वरूप मिथ्याज्ञान तीन प्रकार का होता है? इस प्रकार किसी पुरुष की आशंका होने पर उदाहरण सहित ज्ञापक हेतु को श्री उमास्वामी महाराज ने सूत्र में दिखलाया है। व्याप्य हेतु से साध्य की सिद्धि सुलभता से हो जाती है। यहाँ सूत्र में कहे गये फिर सत् और असत् क्या पदार्थ हैं? और उन दोनों का विशेषतारहितपना क्या है? तथा यदृच्छा उपलब्धि क्या है? इस प्रकार जिज्ञासा होने पर श्री विद्यानन्द स्वामी कहते हैं इस सूत्र में कहे गये 'सत्' शब्द का अर्थ तो उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से युक्त द्रव्य है। इस बात . को स्वयं मूल ग्रन्थकार पाँचवें अध्याय में स्पष्टरूप से कहेंगे। उस सत् से अन्य पदार्थ यहाँ 'असत्' कहा जाता है। बिना कहे ही यह तत्त्व इस व्याख्यात सत् की सामर्थ्य से निर्णीत कर लिया जाता है। उन सत्, असत् दोनों का पृथक् भाव नहीं करना है। वह सज्जन पुरुषों के द्वारा अविशेष किया गया कहा जाता है। अथवा विद्यमान पदार्थों के साथ सत् और असत् का पृथग्भाव नहीं करना अविशेष कहा जाता है। इस प्रकार उस पदार्थ की सत्, असत्रूप की संकरपने से अथवा व्यतिकरपने से ज्ञप्ति कर लेना मिथ्या ज्ञानों से साध्य कार्य है। सत् में सत् और असत् दोनों के धर्मों का एक साथ आरोप कर देना संकरदोष है। परस्पर में एक दूसरे के अत्यन्ताभाव का समानाधिकरण धारने वाले पदार्थों का एक अर्थ में समावेश हो जाना सांकर्य है। तथा सत् के धर्मों का असत् में चले जाना और असत् के धर्मों का सत् में चले जाना, परस्पर में विषयों का गमन हो जाना व्यतिकर है। विपर्ययज्ञानी जीव संकर और व्यतिकर दोषों से युक्त सत् असत् पदार्थों को जानता है। उनका वास्तविक विवेक नहीं कर पाता है॥३-४॥ तीसरा प्रश्न 'यदृच्छा उपलब्धि' के विषय में है। इसका उत्तर यह है कि सामान्यरूप से अभीष्ट अभिप्राय को कारण मानकर जो ज्ञान होता है, वह प्रतिपत्ति है, और उस अभिप्राय को कारण नहीं मानकर मनमानी परिणति यदृच्छा है। उस यदृच्छा के द्वारा किसी भी प्रकार ज्ञप्ति हो जाना उपलब्धि कही गयी है॥५॥ कोई जिज्ञासु पूछता है कि इस सूत्र में श्री उमास्वामी महाराज ने “सदसतोः अविशेषात् यदृच्छोपलब्धेः" ऐसा हेतु बनाकर और उन्मत्त को दृष्टान्त बनाकर अनुमान प्रयोग बनाया है, किन्तु इस प्रयोग में साध्य या प्रतिज्ञावाक्य क्या है? इस प्रकार आशंका होने पर श्री विद्यानन्द स्वामी कहते हैं -