________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 53 शब्दसंसृष्टविज्ञानापेक्षया वचनं तथा। यस्मादुक्तं तदेवार्यैः स्याद्वादनयसंस्थितम् // 9 // इति व्याचक्षते ये तु तेषां मत्यादिवेदनं / प्रमाणं तत्र नेष्टं स्यात्तत: सूत्रस्य बाधनम् // 10 // तत्त्वज्ञानं प्रमाणं ते युगपत्सर्वभासनमित्यनेन केवलस्य क्रमभावि च यज्ज्ञानं स्याद्वादनयसंस्कृतमित्यनेन च श्रुतस्यागमस्य प्रमाणान्तरवचनमिति व्याख्याने मतिज्ञानस्यावधिमन:पर्यययोश्च नात्र प्रमाणत्वमुक्त स्यात् / “श्री समन्तभद्राचार्य ने शब्द के साथ संसर्ग को प्राप्त विज्ञान की अपेक्षा से वचन कहा है, तभी तो उन आचार्यों को ज्ञान का स्याद्वाद नीति से स्थित हो जाना कहा जाता है।" अर्थात् - जिन ज्ञानों में शब्द की योजना हो जाती है जैसे कि किसी मानव के कहने से किसी देश में धान्य की उत्पत्ति का ज्ञान किया तथा उसके शब्दों द्वारा वहाँ के पुरुषों में सदाचार में प्रवृत्ति ज्ञात कर ली इत्यादि ऐसे शब्दसंसर्गीज्ञान तो श्रोता को क्रम से ही होते हैं और ऐसा अर्थ करने पर ही “स्याद्वादनयसंस्कृतम्' यह पद भी ठीक संगत हो जाता है। किन्तु शब्द की योजना से रहित बहुभाग श्रुतज्ञान और सभी मति, अवधि और मन:पर्यय ये ज्ञान तो एक साथ हो सकते हैं, क्योंकि उनमें शब्दों का संसर्ग नहीं है। इस प्रकार आप्तमीमांसा के वाक्य .. का जो विद्वान् व्याख्यान करते हैं, उनके यहाँ मतिज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और शब्द का संसर्ग नहीं रखने वाला बहुभाग श्रुतज्ञान तो प्रमाण अभीष्ट नहीं हो सकेंगे और ऐसा हो जाने से सूत्रकार के पाँचों ज्ञानों को प्रमाण कहने वाले सूत्र को बाधा उपस्थित हो जाएगी। अर्थात् - यदि शब्दसंसर्गी श्रुतज्ञान का ही प्रमाणपना कह दिया जायेगा तो शेष मति आदि ज्ञानों का प्रमाणपना व्यवस्थित नहीं हो सकेगा और ऐसी दशा में “मतिश्रुतावधिमन:पर्ययकेवलानि ज्ञानं" श्री उमास्वामी महाराज के इस प्रमाण प्रतिपादक सूत्र से श्री समन्तभद्र स्वामी की कारिका का विरोध हो जायेगा॥९-१०॥ ___“तत्त्वज्ञानं प्रमाणते युगपत् सर्वभासनं' यह देवागमस्तोत्र की कारिका है। इसका अर्थ है कि हे जिनेन्द्र! आपके यहाँ तत्त्वों का यथार्थज्ञान ही प्रमाण माना गया है। इन प्रमाण ज्ञानों में प्रधान ज्ञान केवलज्ञान है जो सम्पूर्ण पदार्थों का युगपत् साक्षात् प्रतिभास करता है और जो ज्ञान क्रम से होने वाले हैं, वे भी तत्त्वज्ञानस्वरूप होने से प्रमाण हैं। स्याद्वादनीति से संस्कृत श्रुतज्ञान भी प्रमाण है। अथवा “स्याद्वादनयसंस्कृतं'' यह विशेषण सभी तत्त्वज्ञानों में लगा लेना चाहिए। सप्तभंगी प्रक्रिया सर्वत्र सुलभ है। यहाँ उक्त कारिका के पूर्वार्ध से केवलज्ञान का प्रमाणपना कहते हुए वे विद्वान् “क्रमभावि च यज्ज्ञानं स्याद्वादनयसंस्कृतं' कारिका के इस उत्तरार्द्ध के द्वारा केवल आगम स्वरूप श्रुतज्ञान को प्रमाण कहते हैं। किन्तु ऐसा व्याख्यान करने पर इस कारिका में मतिज्ञान और देशप्रत्यक्षस्वरूप अवधिज्ञान, मन:पर्यय ज्ञानों का प्रमाणपना नहीं समझा जायेगा और इस प्रकार केवलज्ञान और श्रुतज्ञान इन दो ज्ञानों का ही प्रमाणपना श्री समन्तभद्रस्वामी की कारिका द्वारा व्यवस्थित हो जाने पर तत्त्वार्थसूत्रकार द्वारा कहे गये मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान ये पाँच ज्ञान प्रमाण हैं तथा वे ज्ञान प्रत्यक्ष और परोक्ष इन दो प्रमाणस्वरूप हैं। इस प्रकार पाँचों ज्ञानों को दो प्रमाणस्वरूपपना प्रतिपादन करने वाले सूत्रों के द्वारा बाधा हो जाने का प्रसंग आयेगा।