________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 56 शक्त्यर्पणात्तु तद्भाव: सहेति न विरुध्यते / कथंचिदक्रमोद्भूतिः स्याद्वादन्यायवेदिनाम् // 14 // क्षायोपशमिकज्ञानानां हि स्वावरणक्षयोपशमयोगपद्यशक्तेः सहभावोऽस्त्येकत्रात्मनि योग इति कथञ्चिदक्रमोत्पत्तिर्न विरुध्यते सूत्रोक्ता स्याद्वादन्यायविदां / सर्वथा सहभावयोरनभ्युपगमाच्च न प्रतीतिविरोधः शक्त्यात्मनैव हि सहभावो नोपयुक्तात्मनानुपयुक्तात्मना वा सहभावो न शक्त्यात्मनापीति प्रतीतिसिद्धं / सहोपयुक्तात्मनापि रूपादिज्ञानपंचकप्रादुर्भावमुपयन्तं प्रत्याह शष्कुलीभक्षणादौ तु रसादिज्ञानपंचकम् / सकृदेव तथा तत्र प्रतीतेरिति यो वदेत् // 15 // - अत: मति आदि ज्ञानों में स्यात् क्रमः, स्यात् अक्रमः, स्यात् उभयं, स्यात् अवक्तव्यं, स्यात्क्रमअवक्तव्यं, स्यात् अक्रम-अवक्तव्यं, स्यात् क्रम अक्रम-अवक्तव्यं यह सप्तभंगी प्रक्रिया लगा लेनी चाहिए॥१४|| क्षायोपशमिक चार ज्ञानों की अपने-अपने आवरण करने वाले ज्ञानावरण कर्मों के क्षयोपशम का युगपत् होने से शक्ति का सहभाव एक आत्मा में विद्यमान है। किन्तु उपयोगात्मक ज्ञानों का संहभाव नहीं है। इस प्रकार उन ज्ञानों की इस सूत्र में कही गयी अक्रम से उत्पत्ति तो स्याद्वाद न्याय को जानने वाले विद्वानों के यहाँ विरुद्ध नहीं होती है। शक्ति और उपयोग की अपेक्षा इस सूत्र का और “एकदा न द्वावुपयोगौ” इस वाक्य का कोई विरोध नहीं है। जैनों ने सर्वथा ज्ञानों के सहभाव और सर्वथा ज्ञानों के असहभाव को स्वीकार नहीं किया है। शक्ति रूप से ज्ञानों का सहभाव मानना प्रमाण प्रसिद्ध प्रतीतियों से विरुद्ध नहीं है। उपयुक्तस्वरूप ज्ञानों का सहभाव एक समय में नहीं है अथवा उपयुक्तस्वरूप ज्ञानों का असहभाव है। शक्तिस्वरूप भी असहभाव हो भी सकता है और नहीं भी। यह सिद्धान्त प्रतीतियों से सिद्ध / जो वादी उपयोगरूप से भी रूप, रस आदि पाँच ज्ञानों की एक साथ उत्पत्ति को स्वीकार करते हैं, उनके प्रति आचार्य कहते हैं - पूड़ी आदि के भक्षण, सूंघने, छूने आदि में गन्ध आदि पाँचों ज्ञानों का एक ही समय में ज्ञान होना प्रतीत हो रहा है। अत: उपयोग स्वरूप भी अनेक ज्ञान एक समय में हो सकते हैं। ऐसा कहनेवालों को आचार्य कहते हैं कि उस विद्वान् के यहाँ उन पाँचों ज्ञानों की स्मृतियाँ विशेषता रहित होने से एक साथ क्यों नहीं हो जाती हैं? अर्थात् अनुभव एक साथ पाँच होते हैं, तो स्मृतियाँ भी एक साथ पाँच होनी चाहिए। अनुभव के अनुसार स्मृतियाँ हुआ करती हैं। किसी काल में किसी एक व्यक्ति को कहीं भी इस प्रकार एक समय में अनेक ज्ञानों की संवित्ति से वहाँ पूड़ी भक्षण आदि में उन रसादि के पाँच ज्ञानों के एक साथ उत्पन्न होने की व्यवस्था करते हो? अथवा सदा सम्पूर्ण व्यक्तियों के सभी ऐसे स्थलों पर इस प्रकार संवित्तियों से पाँचों ज्ञानों का साथ हो जाना स्वीकार करते हो? प्रथमपक्षानुसार किसी को कहीं कभी वैसा ज्ञान होने से तो यथार्थ व्यवस्था नहीं हो सकती। सभी व्यक्तियों को सदा ऐसे सभी स्थलों पर रस आदि के वे पाँच ज्ञान एक साथ उत्पन्न नहीं होते हैं। जैसे कचौड़ी भक्षण कर चुकने पर रूप, रस आदि की स्मृतियाँ क्रम से ही होती हैं। इस प्रकार रूपादि के पाँच ज्ञानों का भी क्रम से उत्पन्न होना देखा जाता है। पूड़ी सम्बन्धी