Book Title: Sthananga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
स्थान २ उद्देशक १
३९ 000000000000000000000000000000000000000000000000000 संयोजनाधिकरणिकी, णिव्वत्तणाहिगरणिया - निर्वर्तनाधिकरणिकी, पाउसिया - प्राद्वेषिकी, परियावणिया- पारितापनिकी, सहत्थपरियावणिया - स्वहस्तपारितापनिकी, परहत्थपरियावणिया - परहस्त पारितापनिकी, पाणाइवाय - प्राणातिपातिकी, अपच्चक्खाण - अप्रत्याख्यानिकी।।
भावार्थ - जीव का कथन किया जा चुका है। अब अजीव का कथन किया जाता है - आकाशास्तिकाय और नो आकाशास्तिकाय अर्थात् आकाशास्तिकाय से भिन्न धर्मास्तिकाय आदि। धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय। बन्ध और मोक्ष। पुण्य और पाप। आस्रव और संवर। वेदना और निर्जरा। दो क्रियाएं कही गई हैं यथा - जीव क्रिया - जैसे कि जीव के व्यापार से उत्पन्न होने वाली क्रिया और अजीव क्रिया - अजीव के व्यापार से उत्पन्न होने वाली क्रिया। जीव क्रिया दो प्रकार की कही गई है यथा - सम्यक्त्व क्रिया और मिथ्यात्व क्रिया। सम्यक्त्व और मिथ्यात्व दोनों जीव के व्यापार होने से क्रिया है। अजीव क्रिया दो प्रकार की कही गई है यथा - ईर्यापथिकी और साम्परायिकी। दो क्रियाएं कही गई हैं यथा - कायिकी यानी काया से होने वाली क्रिया और आधिकरणिकी यानी बाहरी खड्ग (तलवार) आदि अधिकरणों से लगने वाली क्रिया। कायिकी क्रिया दो प्रकार की कही गई हैं यथा - सावदय कार्यों से निवृत्त न होने वाले सम्यग्दृष्टि या मिथ्यादृष्टि जीव की काया के हलन चलन आदि व्यापार से लगने वाली क्रिया और दुष्प्रयुक्त काय क्रिया यानी इष्ट अनिष्ट विषय में सुख दुःख उत्पन्न होने से और मन के बुरे संकल्प विकल्पों से लगने वाली क्रिया। आधिकरणिकी क्रिया दो प्रकार की कही गई है यथा - संयोजनाधिकरणिकी यानी पहले से बनी हुई तलवार और उसकी मूठ को जोड़ने रूप क्रिया से लगने वाली क्रिया और निर्वर्तनाधिकरणिकी यानी तलवार आदि शस्त्रों को बनाने रूप क्रिया से लगने वाली क्रिया। दो क्रियाएं कही गई हैं. यथा - प्राद्वेषिकी यानी किसी पर द्वेष करने से लगने वाली क्रिया और पारितापनिकी यानी जीवों को परिताप और दुःख देने से लगने वाली क्रिया। प्राद्वेषिकी क्रिया दो प्रकार की कही गई है यथा - जीवप्राद्वेषिकी यानी किसी जीव पर द्वेष करने से लगने वाली क्रिया और अजीव प्राद्वेषिकी यानी पत्थर आदि पर गिर पड़ने से एवं दीवाल या स्तम्भ आदि से शिर फूट जाने से उन पर द्वेष करने से लगने वाली क्रिया। पारितापनिकी क्रिया दो प्रकार की कही गई है यथा - अपने हाथ से स्वदेह को या परदेह को परिताप उपजाने से लगने वाली क्रिया स्वहस्त पारितापनिकी और दूसरों के हाथ से स्वदेह को या परदेह को परिताप उपजवाने से लगने वाली क्रिया परहस्त पारितापनिकी। दो क्रियाएं कही गई हैं यथा-जीव हिंसा से लगने वाली क्रिया प्राणातिपातिकी और सावदय कार्य का पच्चक्खाण-त्याग न करने से अविरति जीवों को लगने वाली क्रिया अप्रत्याख्यानिकी। प्राणातिपातिकी क्रिया दो प्रकार की कही गई है यथा-क्रोध के वश होकर अपने हाथ से अपने प्राणों का या दूसरों के प्राणों को हनन करने से लगने वाली क्रिया स्वहस्त प्राणातिपातिकी और दूसरों के
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org