Book Title: Sthananga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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स्थान २ उद्देशक १
को इन दो गतियों में उत्पन्न होते समय जितना अवधिज्ञान होता है उतना ही उनकी आयु पूर्ण होने तक बना रहता है घटता बढ़ता नहीं। मनुष्य और पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च इन दोनों को कर्मों के क्षयोपशम से होने वाला क्षायोपशमिक अवधिज्ञान होता है। मनःपर्यवज्ञान दो प्रकार का कहा गया है। जैसे कि मन में चिन्तित पदार्थ को सामान्य रूप से जानना वह ऋजुमति मनः पर्यवज्ञान और मन में चिन्तित पदार्थ को विशेष रूप से जानना वह विपुलमति मनः पर्यवज्ञान । परोक्ष ज्ञान दो प्रकार का कहा गया है जैसे कि आभिनिबोधिक ज्ञान यानी मतिज्ञान और श्रुतज्ञान । आभिनिबोधिक ज्ञान दो प्रकार का कहा गया है जैसे कि श्रुतनिश्रित और अश्रुतनिश्रित । श्रुतनिश्रित दो प्रकार का कहा गया है जैसे कि अर्थावग्रह और व्यञ्जनावग्रह । इसी प्रकार अश्रुतनिश्रित के भी अर्थावग्रह और व्यञ्जनावग्रह ये दो भेद हैं। श्रुतज्ञान दो प्रकार का कहा गया है जैसे कि अङ्ग प्रविष्ट आचाराङ्ग आदि और अङ्ग बाह्य उत्तराध्ययन आदि । अङ्ग बाह्य श्रुतज्ञान दो प्रकार का कहा गया है जैसे कि अवश्य करने योग्य सामायिक आदि छह आवश्यक रूप और आवश्यक व्यतिरिक्त । आवश्यक व्यतिरिक्त दो प्रकार का कहा गया है जैसे कि कालिक यानी दिन और रात्रि के पहले पहर और अन्तिम पहर में जिन सूत्रों को पढ़ने की आज्ञा हैं वे कालिकश्रुत हैं, जैसे उत्तराध्ययन आदि और जिन सूत्रों को पढ़ने में समय की मर्यादा निश्चित नहीं है अर्थात् अस्वाध्याय के समय को टाल कर दिन रात में किसी भी समय पढ़े जा सकने वाले सूत्र उत्कालिक कहलाते हैं, जैसे दशवैकालिक आदि ।
विवेचन - वस्तु के विशेष धर्म को जानना ज्ञान कहलाता है। ज्ञान दो प्रकार का कहा है १. प्रत्यक्ष - इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना साक्षात् आत्मा से जो ज्ञान हो वह प्रत्यक्ष ज्ञान है जैसे अवधि ज्ञान, मनः पर्यवज्ञान और केवलज्ञान ।
२. परोक्ष इन्द्रिय और मन की सहायता से जो ज्ञान हो वह परोक्ष ज्ञान है। जैसे मतिज्ञान और श्रुतज्ञान । अथवा जो ज्ञान अस्पष्ट हो ( विशद न हो) उसे परोक्षज्ञान कहते हैं जैसे स्मरण, प्रत्यभिज्ञान आदि ।
मति आदि ज्ञान की अपेक्षा बिना त्रिकाल एवं त्रिलोकवर्ती समस्त पदार्थों को युगपत् हस्तामलकवत् जानना केवल ज्ञान है । केवलज्ञान दो प्रकार का कहा है- १. भवस्थ केवलज्ञान - तेरहवें चौदहवें गुणस्थानवर्ती केवली का केवलज्ञान २. सिद्ध केवलज्ञान-मोक्ष स्थित सिद्ध भगवान् का केवल ज्ञान । .नो केवलज्ञान के दो भेद हैं १. अवधिज्ञान - इन्द्रिय और मन के सहायता के बिना द्रव्य क्षेत्र काल और भाव की मर्यादा पूर्वक जो ज्ञान रूपी पदार्थों को जानता है उसे अवधिज्ञान कहते हैं । २. मनः पर्यवज्ञान - इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना मर्यादा को लिए हुए संज्ञी जीवों के मनोगत भावों को जानना मनः पर्यवज्ञान है।
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अवधिज्ञान के दो भेद हैं १. भवप्रत्यय अवधिज्ञान- जिस अवधिज्ञान के होने में भव ही
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