Book Title: Sthananga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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स्थान ४ उद्देशक ३
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बराबर पालने करने से वह दृढ़धर्मी है यह दूसरा भंग है। ३. प्रियधर्मी है और दृढ़धर्मी है दोनों प्रकार से कल्याण रूप है । ४. दोनों प्रकार से प्रतिकूल है अर्थात् प्रियधर्मी भी नहीं है और दृढ़धर्मी भी नहीं है ।
प्रश्न - अंतेवासी किसे कहते हैं ? उत्तर - अंते - गुरु के समीप रहने का जिसका स्वभाव है वह अंतेवासी (शिष्य) कहलाता है । प्रश्न - निग्रंथ किसे कहते हैं ? उत्तर - जो बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रह से रहित हैं वे निग्रंथ कहलाते हैं । प्रश्न - रानिक किसे कहते हैं ?
उत्तर - रत्नत्रयी-ज्ञान दर्शन चारित्र रूप रत्नों में विचरण करने वाले रात्लिक कहलाते हैं। दीक्षा पर्याय में ज्येष्ठ श्रमण निग्रंथ रालिक (रत्नाधिक) कहलाते हैं ।
चार प्रकार के श्रमणोपासक, स्थिति चत्तारि समणोवासगा पण्णत्ता तंजहा - अम्मापिइसमाणे, भाइसमाणे, मित्तसमाणे, सवत्तिसमाणे । चत्तारि समणोवासगा पण्णत्ता तंजहा - अद्दागसमाणे, पडागसमाणे, खाणुसमाणे, खरकंटयसमाणे।।
समणस्स णं भगवओ महावीरस्स समणोवासगाणं सोहम्मे कप्पे अरुणाभे विमाणे चत्तारि पलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता॥१७१॥
कठिन शब्दार्थ - समणोवासगा- श्रमणोपासक, अम्मापिइसमाणे - अम्मा पिया-मातापिता के समान, भाइसमाणे-- भाई के समान, मित्तसमाणे - मित्र के समान, सवत्तिसमाणे - सौत के समान, अदागसमाणे - आदर्श समान, पडाग समाणे - पताका समान, खाणुसमाणे - स्थाणु (ढूंठ) के समान, खरकंटयसमाणे - खर कण्टक समान, अरुणाभे विमाणे - अरुणाभ विमान में ।।
भावार्थ - चार प्रकार के श्रमणोपासक - श्रावक कहे गये हैं यथा - माता पिता के समान यानी जो साधुओं का सब प्रकार का हित करने वाले हैं वे माता पिता के समान हैं । तत्त्व विचारणा आदि में कठोर वचन से कभी साधुओं से अप्रीति होने पर भी मन में सदा उनका हित चाहते हैं वे भाई के समान हैं । साधुओं के दोषों को ढकने वाले और उनके गुणों का प्रकाश करने वाले श्रावक मित्र के समान हैं । साधुओं में सदा दोष देखने वाले और उनका अपकार करने वाले श्रावक सौत के समान है । चार प्रकार के श्रमणोपासक-श्रावक कहे गये हैं यथा - आदर्श समान यानी जैसे काच में पदार्थों का वैसा ही प्रतिबिम्ब पड़ता है उसी प्रकार साधु मुनिराज द्वारा कहे गये सूत्र सिद्धान्त के भावों को जो यथार्थ रूप से ग्रहण करता है वह आदर्श यानी दर्पण के समान श्रावक है। पताकासमान यानी ध्वजा जिस दिशा की वायु होती है उसी दिशा में फहराने लगती है उसी प्रकार जिस श्रावक का अस्थिर मन विचित्र
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