________________
३७४
श्री स्थानांग सूत्र 000000000000000000000000000000000000000000000000000 देशना सुन कर बदलता रहता है अर्थात् जैसी देशना सुनता है उसी की ओर झुक जाता है वह पताका समान श्रावक है। जो श्रावक गीतार्थ साधु का उपदेश सुन कर भी अपने दुरांग्रह को नहीं छोड़ता है वह स्थाणु ढूंठ के समान है । जैसे बबूल आदि का कांटा उसमें फंसे हुए वस्त्र को फाड़ देता है और साथ ही छुड़ाने वाले पुरुष के हाथों में चुभ कर उसे दुःखित करता है, उसी प्रकार जो श्रावक समझाया जाने पर भी अपने दुराग्रह को नहीं छोड़ता है बल्कि समझाने वाले को कठोर वचन रूपी कांटों से कष्ट पहुंचाता है वह खरकण्टक समान श्रावक है ।
श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के आनन्द, कामदेव आदि दस श्रमणोपासकों की सौधर्म नामक प्रथम देवलोक के अरुणाभ आदि विमानों में चार-चार पल्योपम की स्थिति कही गई है। ..
विवेचन - चार प्रकार के श्रावक कहे हैं -
१. माता पिता के समान - बिना अपवाद के साधुओं के प्रति एकान्त रूप से वत्सल भाव रखने वाले श्रावक माता-पिता के समान हैं। जैसे माता-पिता अपनी सन्तान का एकान्त हित चाहते हैं यदि कोई अयोग्य कार्य करें तो उसे रोक देते हैं और उसकी हित कार्य में प्रवृत्ति कराते हैं उसी प्रकार जो श्रावक श्राविका साधु-साध्वी के महाव्रतों का निर्मलता पूर्वक पलवाने में सहायक होते हैं। यदि साधुसाध्वी कोई विपरीत कार्य करें तो वे उसे रोक देते हैं और व्रत निर्मल रखने में सहायक बनते हैं। इसके लिये कुछ कठोर बर्ताव भी करना पड़े तो करते हैं परन्तु मन में किसी प्रकार का द्वेष भाव नहीं रखते हैं। इसी प्रकार संयम में उपकारक श्रावक-श्राविका माता-पिता के समान कहलाते हैं।
२. भाई के समान - तत्त्व विचारणा आदि में कठोर बचन से कभी साधुओं से अप्रीति होने पर भी शेष प्रयोजनों में अतिशय वत्सलता रखने वाले श्रावक भाई के समान हैं। ____३. मित्र के समान - उपचार सहित वचन आदि द्वारा साधुओं से जिनकी प्रीति का नाश हो जाता है और प्रीति का नाश हो जाने पर भी आपत्ति में उपेक्षा नहीं करने वाले श्रावक मित्र के समान हैं । मित्र की तरह दोषों को ढकने वाले और गुणों का प्रकाश करने वाले श्रावक मित्र के समान हैं ।
४. सौत के समान - साधुओं में सदा दोष देखने वाले और उनका अपकार करने वाले श्रावक सौत के समान हैं।
श्रावक के अन्य चार प्रकार -
१. आदर्श समान श्रावक - जैसे दर्पण समीपस्थ पदार्थों का प्रतिबिम्ब ग्रहण करता है । उसी प्रकार जो श्रावक साधुओं से उपदिष्ट उत्सर्ग, अपवाद आदि आगम सम्बन्धी भावों को यथार्थ रूप से ग्रहण करता है । वह आदर्श (दर्पण) समान श्रावक है ।
. २. पताका समान श्रावक - जैसे अस्थिर पताका जिस दिशा की वायु होती है । उसी दिशा में फहराने लगती है । उसी प्रकार जिस श्रावक का अस्थिर ज्ञान विचित्र देशना रूप वायु के प्रभाव से
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org