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श्री स्थानांग सूत्र
विवेचन - भाव दुःख शय्या के चार प्रकार - पलङ्ग बिछौना वगैरह जैसे होने चाहिए, वैसे न हों, दुःखकारी हों, तो ये द्रव्य से दुःख शय्या रूप हैं । चित्त (मन) श्रमण स्वभाव वाला न होकर दुःश्रमणता वाला हो, तो वह भाव से दुःख शय्या है । भाव दुःख शय्या चार हैं -
१. पहली दुःख शय्या - किसी गुरु (भारी) कर्म वाले मनुष्य ने मुंडित होकर दीक्षा ली । दीक्षा लेने पर वह निग्रंथ प्रवचन में शङ्का, कांक्षा (पर मत अच्छा है, इस प्रकार की बुद्धि) विचिकित्सा (धर्म फल के प्रति सन्देह या साधु साध्वी के प्रति घृणा) करता है, जिन शासन में कहे हुए भाव वैसे ही हैं अथवा दूसरी तरह के हैं ? इस प्रकार चित्त को डांवाडोल करता है । कलुष भाव अर्थात् विपरीत भाव को प्राप्त करता है । वह जिन प्रवचन पर श्रद्धा, प्रतीति और रुचि नहीं रखता । जिन प्रवचन में श्रद्धा प्रतीति न करता हुआ और रुचि न रखता हुआ मन को ऊंचा नीचा करता है । इस कारण वह धर्म से भ्रष्ट हो जाता है । इस प्रकार वह श्रमणता रूपी शय्या में दुःख से रहता है।
२. दूसरी दुःख शय्या - कोई कर्मों से भारी मनुष्य प्रव्रज्या लेकर अपने लाभ से सन्तुष्ट नहीं होता । वह असन्तोषी बन कर दूसरे के लाभ में से, वह मुझे देगा, ऐसी इच्छा रखता है । यदि वह देवे तो मैं भोगूं, ऐसी इच्छा करता है । उसके लिए याचना करता है और अति अभिलाषा करता है । उसके . मिल जाने पर और अधिक चाहता है। इस प्रकार दूसरे के लाभ में से आशा, इच्छा, याचना यावत् अभिलाषा करता हुआ वह मन को ऊंचा नीचा करता है । इस कारण वह धर्म से भ्रष्ट हो जाता है । यह दूसरी दुःख शय्या है ।
३. तीसरी दुःख शय्या - कोई कर्म बहुल प्राणी दीक्षित होकर देव तथा मनुष्य सम्बन्धी काम भोग पाने की आशा करता है । याचना यावत् अभिलाषा करता है । इस प्रकार करते हुए वह अपने मन को ऊंचा नीचा करता है और धर्म से भ्रष्ट हो जाता है । यह तीसरी दुःख शय्या है ।
४. चौथी दुःख शय्या - कोई गुरु कर्मी जीव साधुपन लेकर सोचता है कि मैं जब गृहस्थ वास में था । उस समय तो मेरे शरीर पर मालिश होती थी । पीठी होती थी । तैलादि लगाए जाते थे और शरीर के अङ्ग उपाङ्ग धोये जाते थे अर्थात् मुझे स्नान कराया जाता था । लेकिन जब से साधु बना हूँ। तब से मुझे ये मर्दन आदि प्राप्त नहीं होते हैं । इस प्रकार वह उनकी आशा यावत् अभिलाषा करता है 'और मन को ऊंचा नीचा करता हुआ धर्म से भ्रष्ट हो जाता है । यह चौथी दुःख शय्या है । श्रमण को ये चारों दुःख शय्या छोड़ कर संयम में मन को स्थिर करना चाहिए।
चतुर्विध सुख शय्या ___चत्तारि सहसेज्जाओ पण्णत्ताओ तंजहा - तत्थ खलु इमा पढमा सुहसेज्जा, सेणं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए णिगंथे पावयणे णिस्संकिए णिक्कंखिए
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