Book Title: Sthananga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 463
________________ ४४६ श्री स्थानांग सूत्र 000000000000000000000000000000000000000000000000000 द्रव्य से अमुक्त और भाव से भी अमुक्त, जैसे गृहस्थ । चार प्रकार के पुरुष कहे गये हैं यथा - कोई एक पुरुष भाव से मुक्त है और मुक्तरूप है, जैसे श्रेष्ठ साधु । कोई एक पुरुष भाव से तो मुक्त है किन्तु बाहर मुक्त का वेश नहीं है, जैसे गृहस्थ अवस्था में रहे गुए भगवान् महावीर स्वामी । कोई एक पुरुष भाव से तो मुक्त नहीं है किन्तु बाहर मुक्त का वेश रखता है, जैसे धूर्त-कपटी साधु । कोई एक पुरुष भाव से अमुक्त है और बाहर भी अमुक्त का ही वेश रखता है, जैसे गृहस्थ । . पंचेन्द्रिय तिर्यचों की गति-आगति पंचिंदिय तिरिक्खजोणिया चउगइया चउआगइया पण्णत्ता तंजहा - पंचिंदिय तिरिक्खजोणिया पंचिंदियतिरिक्खजोणिएसु उववजमाणा गैरइएहितो वा, तिरिक्खजोणिएहिंतो वा, मणुस्सेहिंतो वा, देवेहिंतो वा उववज्जेज्जा । से चेव णं से पंचिंदिय तिरिक्खजोणिए पंचिंदिय तिरिक्खजोणियत्तं विष्पजहमाणे णेरइयत्ताए वा जाव देवत्ताए वा उवागच्छेज्जा । मणुस्सा चउगइया चउआगइया, एवं चेव मणुस्सा वि॥२०२॥ कठिन शब्दार्थ - चउगइया - चार गति वाले, चउ आगइया - चार आगति वाले, उववजमाणाउत्पन्न होता हुआ, विप्पजहमाणे - छोडता हुआ। भावार्थ - पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च योनि के जीव चार गति और चार आगति वाले कहे गये हैं यथा - पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च योनि में उत्पन्न होने वाले पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च जीव नैरयिकों में से अथवा तिर्यञ्चों में से अथवा मनुष्यों में से अथवा देवों में से आकर उत्पन्न होते हैं। पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च योनि को छोड़ता हुआ उस योनि से निकल कर तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय जीव नैरयिक यावत् देवरूप से यानी नैरयिक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देवों में उत्पन्न हो सकता है । मनुष्य में चार गति और चार आगति होती है जैसा तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय में कथन किया है वैसा ही मनुष्यों में भी कह देना चाहिए। बेइन्द्रिय जीवों संबंधी संयम-असंयम बेइंदिया णं जीवा असमारभमाणस्स चउविहे संजमे कज्जइ तंजहा - जिब्भामयाओ सोक्खाओ अववरोवित्ता भवइ, जिब्भामएणं दुक्खेणं असंजोगेत्ता भवइ, फासमयाओ सोक्खाओ अववरोवित्ता भंवइ, फासमएणं दुक्खेणं असंजोगेत्ता भवइ। बेइंदिया णं जीवा समारभमाणस्स चउविहे असंजमे कज्जइ तंजहाजिब्भामयाओ सोक्खाओ ववरोवित्ता भवइ, जिब्भामएणं दुक्खेणं संजोगित्ता भवइ, फासमयाओ सोक्खाओ ववरोवित्ता भवइ, फासमएणं दुक्खेणं संजोगित्ता भवई ॥२०३॥ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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