Book Title: Sthananga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 465
________________ श्री स्थानांग सूत्र कृतप्रतिकृतिक - उ 5- उपकार को मानने से और उपकारी पुरुष गुणों का वर्णन करने से, दीवेज्जा - विशेष दीप्त होते हैं, सरीरुप्पत्ति शरीर की उत्पत्ति, णिव्वत्तिए निर्वृत्ति । भावार्थ - सम्यग्दृष्टि नैरयिक जीवों के चार क्रियाएं कही गई हैं यथा आरम्भिकी पारिग्रहिकी, मायाप्रत्ययिकी और अप्रत्याख्यानिकी । इसी प्रकार सम्यग्दृष्टि असुरकुमार देवों के भी चार क्रियाएं कही गयी हैं । विकलेन्द्रिय यानी एकेन्द्रिय, बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय और चौरेन्द्रिय जीवों को छोड़ कर वैमानिक देवों तक सभी जीवों में इसी तरह चार क्रियाएं पाई जाती हैं । क्रोध से, प्रतिनिवेश यानी असहनशीलता से, अकृतज्ञता यानी किये हुए उपकार को न मानने से और मिथ्यात्वाभिनिवेश यानी विपरीत ज्ञान के आग्रह से इन चार कारणों से विद्यमान गुणों का नाश हो जाता है। गुणों का अधिकाधिक अभ्यास करने से एवं गुणी पुरुष के पास रहने से, दूसरे के अभिप्राय अनुसार प्रवृत्ति करने से, कार्यहेतु यानी इच्छित कार्य के अनुकूल आचरण करने से, किये हुए उपकार को मानने से अथवा उपकारी पुरुष के गुणों का वर्णन करने से, इन चार कारणों से विद्यमान गुण विशेष दीप्त होते हैं । क्रोध से, मान से, माया से और लोभ से इन चार कारणों से नैरयिक जीवों के शरीर की उत्पत्ति होती है । इसी तरह वैमानिक देवों तक सब जीवों के शरीर की उत्पत्ति उपरोक्त चार कारणों से होती है । क्रोध मान, माया और लोभ इन चार कारणों से नैरयिक जीवों के शरीर की निर्वृत्ति यानी सम्पूर्णता होती है । इसी तरह वैमानिक देवों तक सब जीवों के शरीर की पूर्णता उपरोक्त चार कारणों से होती है । विवेचन - सम्यग्दृष्टि जीवों में मिथ्यात्व क्रिया का अभाव होने से चार क्रियाएं कही गयी हैं। एकेन्द्रिय, बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चउरेन्द्रिय जीवों के पांच क्रियाएं होती हैं क्योंकि वे मिथ्यादृष्टि होते हैं । बेइन्द्रिय आदि में सास्वादन (पतनशील अवस्था में) सम्यक्त्व का अल्पत्व होने से यह विवक्षा की गई है । अतः विकलेन्द्रिय को छोड़ कर सोलह क्रिया सूत्र कहे हैं । गुणलोप के चार स्थान - चार प्रकार से दूसरे के विद्यमान गुणों का लोप किया जाता है। जीव दूसरे के विद्यमान् गुणों का अपलाप करता है। १. क्रोध से । २. दूसरे की पूजा प्रतिष्ठा न सहन कर सकने के कारण, ईर्ष्या से । ३. अकृतज्ञता I ४. विपरीत ज्ञान से । ४४८ - गुण प्रकाश के चार स्थान - चार प्रकार से दूसरे के विद्यमान गुण प्रकाशित किए जाते हैं। १. अभ्यास अर्थात् आग्रह वश, अथवा वर्णन किए जाने वाले पुरुष के समीप में रहने से। २. दूसरे के अभिप्राय के अनुकूल व्यवहार करके के लिए। Jain Education International - ३. इष्ट कार्य के प्रति दूसरे को अनुकूल करने के लिए। ४. किये हुए गुण प्रकाश रूप उपकार व अन्य उपकार का बदला चुकाने के लिए। क्रोध आदि कर्म बंधन के हेतु हैं और कर्म शरीर उत्पत्ति का कारण है अतः कारण में कार्य के For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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