Book Title: Sthananga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 444
________________ स्थान ४ उद्देशक ४ ४२७ है । चार प्रकार की प्रव्रज्या कही गई है । यथा - पुरतःप्रतिबद्धा यानी दीक्षा लेकर शिष्य, आहार आदि में स्नेह भाव रखना। मार्गतः प्रतिबद्धा यानी दीक्षा लेकर कुटुम्ब आदि में स्नेहभाव रखना, द्विधाप्रतिबद्धा यानी दीक्षा लेकर शिष्य, आहारादि में तथा कुटुम्ब आदि दोनों में स्नेहभाव रखना । अप्रतिबद्धा यानी किसी में स्नेह भाव न रखते हुए केवल मोक्ष का लक्ष्य रखना । चार प्रकार की प्रव्रज्या कही गई है । यथा - अवपात प्रव्रज्या यानी गुरु महाराज की सेवा करने के लिए दीक्षा लेना, आख्यात प्रव्रज्या यानी किसी के कहने से दीक्षा लेना, जैसे कि आर्यरक्षित स्वामी के कहने से उनके भाई फल्गुरक्षित ने दीक्षा ले ली थी । संगार यानी संकेत प्रव्रज्या पूर्व संकेत के अनुसार दीक्षा लेना, जैसे कि . मेतार्य स्वामी ने ली थी । यदि तू दीक्षा ले तो मैं भी दीक्षा लूँ, इस प्रकार का संकेत करके दीक्षा लेना । विहगगति प्रव्रज्या यानी जैसे परिवार आदि से हीन होने पर अकेला पक्षी देशान्तर में चला जाता है । उसी तरह जो पुरुष परिवारादि से रहित हो जाने पर परदेश में जाकर दीक्षा ग्रहण करे । ... चार प्रकार की प्रव्रज्या कही गई है । यथा - पीड़ा उत्पन्न करके जो दीक्षा दी जाय, जैसे कि सागरचन्द्र ने मुनिचन्द्र के पुत्र को दीक्षा दी थी। दूसरे स्थान पर ले जाकर दीक्षा देना, जैसे कि आर्यरक्षित को दी गई थी अथवा दोषों की शुद्धि करके दीक्षा देना । दासपना आदि की पराधीनता से छुड़ा कर दीक्षा देना, जैसे कि - एक साधु ने तैल के लिए दासी बनी हुई अपनी बहिन को दासपने से छुड़ा कर दीक्षा दी थी । भोजन घी आदि का लालच बता कर जो दीक्षा दी जाय, जैसे कि - सुहस्ती स्वामी ने एक भिखारी को दीक्षा दी थी । चार प्रकार की प्रव्रज्या कही गई है । यथा - नटखादिता यानी दीक्षा धारण करके नट की तरह वैराग्य रहित कथा करके भिक्षा ग्रहण करना । भटखादिता यानी सुभट की तरह बल दिखला कर भिक्षा ग्रहण करना । सिंहखादिता यानी सिंह की तरह पराक्रम बतलाकर भिक्षा ग्रहण करना । श्रृंगाल खादिता यानी स्याल की तरह दीनता प्रकट करके भिक्षा ग्रहण करना । - चार प्रकार की कृषि-खेती कही गई है । यथा - एक वक्त बोने से जो उग जाय, जैसे गेहूँ, चना आदि । जो उखाड़ कर दूसरी जगह बोने से उगे, जैसे शालिधान्य । निदाता यानी जिसमें से एक बार विजातीय तृण उखाड़ कर फेंक देने से उगे, परिनिदाता यानी बारबार विजातीय तृण उखाड़ कर फेंकने से उगे । इसी तरह चार प्रकार की प्रव्रज्या कही गई है । यथा - वापित यानी जिसमें एक ही वक्त दीक्षित किया जाय जैसे, सामायिक चारित्र, परिवापित यानी जिसमें अधिक बार दीक्षित किया जाय, जैसे छेदोपस्थापनीय चारित्र, निदाता यानी जिसमें एक वक्त आलोचना देकर शुद्ध किया जाय, .मेतार्य स्वामी का जीव और उनके पूर्व भव के मित्र का जीव ये दोनों जब देवलोक में थे तब उन्होंने आपस में ऐसी प्रतिज्ञा की थी कि - अपन दोनों में से जो पहले चवे उसको दूसरा जाकर प्रतिबोध देवे । मेतार्यस्वामी का जीव पहले चव कर मनुष्य गति में आया। तब उनके मित्र देव ने आकर उन्हें प्रतिबोध दिया था। इससे उन्होंने संसार छोड़ कर दीक्षा ले ली। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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