Book Title: Sthananga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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स्थान ४ उद्देशक ४
आत्मप्रदेश इस प्रकार मिल जाते हैं जैसे दूध और पानी तथा आग और लोह पिण्ड परस्पर एक हो कर मिल जाते हैं। आत्मा के साथ कर्मों का जो यह सम्बन्ध होता है, वही बन्ध कहलाता है। बंध के चार भेद है - १. प्रकृति बन्ध २. स्थिति बन्ध ३. अनुभाग बन्ध ४. प्रदेश बन्ध।
१. प्रकृति बन्ध - जीव के द्वारा ग्रहण किए हुए कर्म पुद्गलों में भिन्न-भिन्न स्वभावों का अर्थात् शक्तियों का पैदा होना प्रकृति बन्ध कहलाता है।
२. स्थिति बन्ध - जीव के द्वारा ग्रहण किए हुए कर्म पुद्गलों में अमुक काल तक अपने स्वभावों को त्याग न करते हुए जीव के साथ रहने की काल मर्यादा को स्थिति बन्ध कहते हैं। .. ३. अनुभाग बन्ध - अनुभाग बन्ध को अनुभाव बन्ध और अनुभव बन्ध तथा रस बन्ध भी कहते हैं। जीव के द्वारा ग्रहण किये हुए कर्म पुद्गलों में से इसके तरतम भाव का अर्थात् फल देने की न्यूनाधिक शक्ति का होना अनुभाग बन्ध कहलाता है।
. ४. प्रदेश बन्ध - जीव के साथ न्यूनाधिक परमाणु वाले कर्म स्कन्धों का सम्बन्ध होना प्रदेश बन्ध कहलाता है।
तीर्थ - सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यक्चारित्र आदि गुण रत्नों को धारण करने वाले प्राणी समूह को तीर्थ कहते हैं। यह तीर्थ ज्ञान, दर्शन, चारित्र द्वारा संसार समुद्र से जीवों को तिराने वाला है। . इसलिए इसे तीर्थ कहते हैं। तीर्थ के चार प्रकार है - १. साधु २. साध्वी ३. श्रावक ४. श्राविका।
१. साधु- पंच महाव्रतधारी, सर्व विरति को साधु कहते हैं। ये तपस्वी होने से श्रमण कहलाते हैं। शोभन, निदान रूप पाप से रहित चि । वाले होने से 'समन' कहलाते हैं। ये ही स्वजन परजन, शत्रु, मित्र, मान, अपमान आदि में समभाव रखने के कारण 'समण' हैं। इसी प्रकार साध्वी का स्वरूप है। श्रमणी और समणी इनके नामान्तर हैं।
२. श्रावक - देश विरति को श्रावक कहते हैं। सम्यग्दर्शन को प्राप्त किये हुए, प्रतिदिन प्रातः। काल साधुओं के समीप प्रमाद रहित होकर श्रेष्ठ चारित्र का व्याख्यान सुनते हैं। वे श्रावक कहलाते हैं। अथवा - जैसा कि कहा है - -"अवाप्तदृष्टयादिविशुद्धसम्पत्, परं समाचारमनुप्रभातम्।
श्रृणोति यः साधु जनादतन्द्ररत्तं श्रावकं प्राहुरमी जिनेन्द्राः॥१॥"
"श्रद्धालुतां प्राति पदार्थचिन्तनाद्धनानि पात्रेषु वपत्थनारतम्। ... किरत्यपुण्यानि सुसाधुसेवनादथापि तं श्रावक माहुरञ्जसा॥२॥"
"श्रद्धालुतां प्राति श्रुणोति शासनं • दानं वपेदाश तृणोति दर्शनं.
कृन्तत्य पुण्यानि करोति सयमं तं श्रावकं प्राहु रमी विचक्षणा॥३॥"
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