Book Title: Sthananga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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श्री स्थानांग सूत्र
निर्ग्रन्थ अल्पकर्मों वाला, अल्पक्रिया वाला, आतापना लेने वाला और समिति आदि से युक्त होता है वह धर्म का आराधक होता है। जिस तरह चार प्रकार के साधु कहे गये हैं, उसी तरह साध्वियाँ भी चार प्रकार की कही गई हैं। इसी तरह श्रमणोपासक यानी श्रावक भी चार प्रकार के कहे गये हैं। इसी तरह श्रमणोपासिका यानी श्राविका भी चार प्रकार की कही गई है जिस प्रकार साधु के चार भांगे कहे गये हैं वैसे ही साध्वी, श्रावक और श्राविका इनके प्रत्येक के चार चार आलापक यानी भांगे कह देने चाहिए।
विवेचन - प्रश्न - गणार्थकर किसे कहते हैं ?
उत्तर - गण - साधु समुदाय के अर्थ-कार्यों को करने वाला गणार्थकर कहलाता है । गणार्थकर, आहार, उपधि, शय्या आदि से गच्छ की सार संभाल करता है।
प्रश्न - गणसंग्रहकर किसे कहते हैं ?
उत्तर - जो गण-गच्छ के लिये संग्रह करता है उसे गणसंग्रहकर कहते हैं । गच्छ के लिए संग्रह द्रव्य और भाव से दो प्रकार का कहा गया है । उसमें द्रव्य से आहार, उपधि और शय्या तथा भाव से ज्ञान, दर्शन और चारित्र रूप संग्रह जो करता है वह गणसंग्रहकर कहलाता है।
प्रश्न - गणशोभाकर किसे कहते हैं ?
उत्तर - गच्छ को निर्दोष साधु की समाचारी में प्रवत्ताने रूप अथवा वादी, धर्मकथी, नैमित्तिक विद्या और सिद्ध (अंजन, चूर्ण आदि प्रयोग से सिद्ध) आदि से गच्छ की शोभा करने के स्वभाव वाले को गणशोभाकर कहते हैं। . प्रश्न - गणशोधिकर किसे कहते हैं ? ___उत्तर - गण को यथायोग्य प्रायश्चित्त आदि देने से जो शुद्ध करता है वह गणशोधिकर कहलाता
- १. रूप - साधु के वेश को कारणवश छोड़ता है परन्तु चारित्र लक्षण धर्म को जो नहीं छोड़ता । जैसे बोटिक मत में रहा हुआ मुनि । २. एक धर्म को छोड़ता है पर वेश को नहीं छोड़ता जैसे निह्मव । ३. जो रूप और धर्म दोनों को छोड़ता है जैसे दीक्षा को छोड़ने वाला और ४. जो रूप और धर्म दोनों को नहीं छोड़ता । जैसे सुसाधु । ____धर्म में प्रेम करके और सुखपूर्वक धर्म को स्वीकार करने से जिसे धर्म प्रिय लगता है वह प्रियधर्मी है । संकट आदि आने पर भी जो धर्म में दृढ़ रहता है वह दृढ़धर्मी है । प्रियधर्मी और दृढ़धर्मी के चार आलापक (भंग) कहे हैं - १. प्रियधर्मी है किंतु दृढ़धर्मी नहीं - दस प्रकार वैयावृत्य में से किसी एक भेद में प्रियधर्मीपन होने से उसमें उद्यम करता है परंतु दृढ़धर्मी न होने से धैर्य और वीर्यबल से कृश-शिथिल होकर पूर्ण रूप से उस धर्म का पालन नहीं कर सकता, यह प्रथम भंग है । २. प्रियधर्मी नहीं किंतु दृढ़धर्मी है - प्रियधर्मी नहीं होने से महान् कष्ट से ग्रहण किये हुए धर्म का
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