Book Title: Sthananga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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श्री स्थानांग सूत्र
- "शीर्यतेऽनुक्षणं चयापचयाभ्यां विनश्यतीति शरीरं तदेव शटनादिधर्म-तयाऽनुकम्पितत्वाच्छरीरम्।"
जिनेश्वर भगवंतों ने दो प्रकार के शरीर कहे हैं - १. आभ्यंतर और २. बाह्य । जो शरीर आत्म प्रदेशों के साथ क्षीर नीर की तरह एकीभूत होता है और जो भवान्तर में भी जीव के साथ रहता है उसे आभ्यन्तर शरीर कहते हैं। तैजस् और कार्मण ये दो शरीर आभ्यंतर हैं। जो आत्म प्रदेशों के साथ किसी अवयव की अपेक्षा अव्याप्त है भवान्तर में साथ नहीं जाता है और अतिशय ज्ञान आदि से जीवों के लिए प्रत्यक्ष होने से बाह्य शरीर है। औदारिक, वैक्रिय और आहारक शरीर बाह्य शरीर . हैं। नारकी और देवों के आभ्यंतर कार्मण शरीर और बाह्य वैक्रिय शरीर होता है। कार्मण शरीर नाम कर्म के उदय से जो सभी कर्मों के लिए आधार रूप है तथा संसारी जीवों के लिए अन्य गतियों में जाने के लिए जो सहायक है वह शरीर कार्मण वर्गणा स्वरूप है। कर्म ही कर्मक-कार्मण है। कार्मण शरीर के कथन से तैजस् शरीर का भी ग्रहण हो जाता है क्योंकि ये एक दूसरे के बिना नहीं होते हैं अर्थात् ये दोनों शरीर सदैव साथ रहते हैं। पृथ्वीकाय आदि पांच दंडकों के जीवों में बाह्य औदारिक शरीर है और आभ्यंतर तैजस् कार्मण शरीर है। वायुकायिक जीवों का वैक्रिय शरीर प्रायिक (कभी कभी) होने से यहाँ वैक्रिय शरीर की विवक्षा नहीं की है। इसी तरह तीन विकलेन्द्रिय, तिर्यच पंचेन्द्रिय और मनुष्य के शरीर के विषय में भी जानना चाहिये। विशेषता यह है कि तीन विकलेन्द्रिय जीवों का औदारिक शरीर अस्थि, मांस और शोणित से आबद्ध होता है उसमें स्नायु और शिरा मादि नहीं होते हैं। जब कि संज्ञी तिर्यंच पंचेन्द्रिय और मनुष्यों का औदारिक शरीर अस्थि, मांस, रुधिर, स्नायु और शिराओं से युक्त होता है। ____जो वक्र गति से अभीष्ट स्थान पर जाता है उसे विग्रह गति समापन्नक कहते हैं। विग्रह गति में या वक्रगति में वाटे (मार्ग में) वहते जीव में दो शरीर पाये जाते हैं - तैजस् और कार्मण। इसी प्रकार चौबीस ही दण्डकों के विषय में जानना चाहिये। सांसारिक चौबीस ही दण्डकों के जीवों के शरीर की उत्पत्ति अर्थात् आरंभ और निर्वर्तना (शरीर के अवयवों का पूर्ण होना) का कारण राग और द्वेष से उत्पन्न कर्म ही है।
दो दिसाओ अभिगिझ कप्पइ णिग्गंथाणं वा णिग्गंथीणं वा पव्वावित्तए, पाईणं चेव उदीणं वा एवं मुंअवित्तए, सिक्खावित्तए, उवट्ठावित्तए, संभुंजित्तए, संवसित्तए सझावमुद्दिसित्तए, सम्झायं समुद्दिसित्तए, सम्झायमणुजाणित्तए, आलोइत्तए, पडिक्कमित्तए, णिदित्तए, गरहित्तए, विउट्टित्तए, विसोहित्तए, अकरणयाए अब्भुट्टित्तए, अहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्मं पडिवग्जित्तए। दो दिसाओ अभिगिज्झ
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