Book Title: Sthananga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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श्री स्थानांग सूत्र
००००
यथा
पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च इन दोनों की गर्भ में रहे हुए ही वृद्धि कही गई है अर्थात् गर्भ में रहे हुए ही ये बढते हैं इसी प्रकार वात पित्त आदि की विषमता से क्षीण हो जाते हैं। कोई कोई वैक्रिय लब्धि वाले जीव विकुर्वणा करते हैं गतिपर्याय यानी हलन चलन करते हैं अथवा मर कर दूसरी गति में चले जाते हैं अथवा गर्भ में से प्रदेश बाहर निकाल कर संग्राम करते हैं जैसा कि भगवती सूत्र में कहा गया है। गर्भ में रहे हुए ही ये मारणान्तिक आदि समुद्घात करते हैं। इनकी कालकृत अवस्था होती है। गर्भ से बाहर निर्गम होता है और इनकी मृत्यु मरण कहलाता है। मनुष्य और पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च इन दो के चमड़ी और पर्व यानी हड्डियों की सन्धि होती है। मनुष्य और पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च ये दो पिता के वीर्य और माता के रज से उत्पन्न होते हैं ऐसा फरमाया है। स्थिति दो प्रकार की कही गई है कायस्थिति और भवस्थिति । मनुष्य और पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च इन दोनों की कायस्थिति कही गई है अर्थात् ये मर कर फिर उसी काया में जन्म ले सकते हैं। देव और नैरयिक इन दो की भवस्थिति कही गई है क्योंकि देव मर कर फिर देवों में और नारकी में उत्पन्न नहीं हो सकता और नारकी से निकला हुआ जीव फिर नारकी में और देवों में उत्पन्न नहीं हो सकता है। आयुष्य दो प्रकार का फरमाया है यथा अद्धायु यानी काल प्रधान आयु और भवायु यानी भव प्रधान आयु । मनुष्य और पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च इन दोनों की अद्धायु होती है ऐसा फरमाया गया है और देवों की और नैरयिकों की इन दोनों की भवायु होती है अर्थात् उस भव की जितनी आयु होती है उतनी पूर्ण करके ही मरते हैं ऐसा फरमाया गया है। कर्म दो प्रकार का फरमाया गया है यथा- प्रदेश कर्म यानी कर्म प्रदेशों को वेदना और अनुभाव कर्म यानी कर्मों के रस को वेदना । देव और नैरयिक ये दो यथायु अर्थात् उस भव की जितनी आयु है उतनी पूर्ण करके ही मरते हैं। इनका आयुष्य बीच में नहीं टूटता है। मनुष्य और पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च इन दोनों की आयु संवर्तकं कही गई है अर्थात् शस्त्र आदि सात कारणों से इनकी आयु बीच में भी टूट सकती है।
विवेचन प्रस्तुत प्रथम चार सूत्रों में जन्म मरण के लिए निम्न शब्दों का प्रयोग किया गया हैउपपात - देव और नारक जीवों का जन्म गर्भ से नहीं होता। वे अन्तर्मुहूर्त में ही अपने पूर्ण शरीर का निर्माण कर लेते हैं इसलिए उनके जन्म को उपपात कहा जाता है। देव शय्या में उत्पन्न होते हैं और नैरयिक जीव कुम्भियों में उत्पन्न होते हैं।
उद्वर्तन नैरयिक और भवनवासी देव अधोलोक में रहते हैं। वे मर कर ऊपर आते हैं इसलिए उनके मरण को उद्वर्तन कहा जाता है।
च्यवन - ज्योतिषी और वैमानिक देव ऊर्ध्वलोक में रहते हैं वे आयुष्य पूर्ण कर नीचे आते हैं। इसलिए उनके मरण को च्यवन कहा जाता है।
गर्भ व्युत्क्रांति - मनुष्य और तिर्यंच गर्भ से पैदा होते हैं इसलिए उनके गर्भाशय से उत्पन्न होने को गर्भ व्युत्क्रांति कहा जाता है।
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