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श्री स्थानांग सूत्र 000000000000000000000000000000000000000000000000000 कहते हैं। मनुष्य और पंचेन्द्रिय तिथंच लगातार सात आठ जन्मों तक मनुष्य और तिर्यंच हो सकते हैं इसलिए उनके कायस्थिति और भवस्थिति दोनों होती है ___यहाँ मूल में 'सतट्ठ भव' शब्द दिया है। जिसका अर्थ कई लोग सात भव देवता के और आठ भव तिर्यंच के अथवा मनुष्य के इस प्रकार पन्द्रह भव अर्थ कर देते हैं। किन्तु यह आगम सम्मत नहीं है क्योंकि भगवती सूत्र के चौवीसवें शतक में गमा के थोकड़े में बतलाया गया है कि तिर्यंच पंचेन्द्रिय और मनुष्य मरकर तिर्यंच पंचेन्द्रिय के रूप में अथवा मनुष्य के रूप में आठ भव कर सकते हैं। उसकी उत्कृष्ट स्थिति बने तो सात भव तो कर्म भूमि के एक करोड़ पूर्व एक करोड़ पूर्व के कर सकता है और आठवां भव अकर्मभूमि का तीन पल्योपम की स्थिति वाला युगलिक का कर सकता है। इस प्रकार तिर्यंच पंचेन्द्रिय की और मनुष्य की उत्कृष्ट काय स्थिति सात करोड़ पूर्व अधिक तीन पल्योपम की बन सकती है। .. प्रश्न - यदि ऐसा है तो आठ ही भव युगलिक के कर लेवे तो काय स्थिति बहुत उत्कृष्ट बन सकती है ?
उत्तर- नहीं ! ऐसा नहीं हो सकता है। क्योंकि युगलिक मरकर तो देव ही होता है। युगलिक नहीं होता है। यदि युगलिक मरकर युगलिक हो जाता तो युगलिक की काय स्थिति बन सकती थी। परन्तु वैसा नहीं होता है। इसलिए युगलिक की काय स्थिति नहीं बन सकती है। युगलिक की जो भव स्थिति है वहीं उसकी काय स्थिति भी होती है। ___तिर्यंच पंचेन्द्रिय की तरह एकेन्द्रिय, बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौरेन्द्रिय की भी काय स्थिति होती है। इस सूत्र से उनकी काय स्थिति का निषेध नहीं समझना चाहिये। क्योंकि प्रस्तुत सूत्र अन्य योग व्यवछेदक नहीं है। किन्तु योग व्यवछेदक है अर्थात् दो की कायस्थिति का विधान ही करता है। दूसरों की कायस्थिति का निषेध नहीं करता है। देव और नैरयिक मृत्यु के बाद देव और नैरयिक नहीं बनते अतः उनकी भवस्थिति होती है, कायस्थिति नहीं होती। - अद्धायु - अद्धा यानी काल, काल प्रधान आयुष्य जन्मान्तर में भी साथ रहने वाली आयु अद्धायु कहलाती है। कायस्थिति का आयुष्य अद्धायु होता है। मनुष्य ने मनुष्य की अथवा तिर्यंच. पंचेन्द्रिय ने तिर्यंच पंचेन्द्रिय की आयुष्य बांधी है तो उसे अद्धायु कहते हैं।
भवायु - जिस जाति में जीव उत्पन्न होता है उसके आयुष्य को भवायु कहा जाता है। जो कालान्तर में साथ नहीं रहती ऐसी भव प्रधान आयुष्य भव आयुष्य कहलाती है।
प्रदेश कर्म - जिस कर्म के प्रदेशों (पुद्गलों) का ही वेदन होता है रस का नहीं होता उसे / प्रदेश कर्म कहते हैं।
अनुभाव कर्म - जिस कर्म के बंधे हुए रस के अनुसार वेदन होता है उसे अनुभाव कर्म . कहते हैं।
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