Book Title: Sthananga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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स्थान ४ उद्देशक १
२५७
तवे पण्णत्ते, छल्लिक्खायसमाणस्स णं भिक्खागस्स कट्ठक्खायसमाणे तवे पण्णत्ते, कट्ठक्खायसमाणस्स णं भिक्खागस्स छल्लिक्खाय समाणे तवे पण्णत्ते॥१२९॥
कठिन शब्दार्थ - घुणा - घुण-लकडी को खाने वाले कीड़े, तयक्खाए - त्वचा-बाहरी वल्कल को खाने वाला, छल्लिक्खाए - भीतर की छाल को खाने वाला, कट्ठक्खाए - लकडी को खाने वाला, सारक्खए - सार यानी काष्ठ के मध्य भाग को खाने वाला, भिक्खागा - भिक्षाचर ।
भावार्थ - चार प्रकार के घुण यानी लकड़ी को खाने वाले कीड़े कहे गये हैं। यथा - त्वचा यानी बाहरी वल्कल को खाने वाला, भीतर की छाल को खाने वाला, काष्ठ को खाने वाला और सार यानी काष्ठ के मध्यभाग को खाने वाला। घुण के समान चार भिक्षाचर (साधु) कहे गये हैं। यथा - बाहरी छाल खाने वाले घुण के समान यानी अल्प तथा असार भोजन करने वाला आयंबिल आदि करने वाला अत्यन्त संतोषी। भीतर की छाल को खाने वाले घुण के समान यानी घृतादि के लेप से रहित आहार करने वाला। काष्ठ खाने वाले घुण के समान यानी विगय रहित आहार करने वाला और काठ के सार भाग को खाने वाले घुण के समान यानी सब विगय सहित आहार करने वाला। बाहरी छाल खाने वाले घुण के समान अल्प और असार आहार करने वाले यानी आयंबिल आदि करने वाले साधु का तप सार भाग खाने वाले घुण के समान कहा गया है। जैसे सार भाग खाने वाले घुण का मुख अति तीक्ष्ण होने से वह काष्ठ को भेद कर सार भाग खाता है उसी तरह आयंबिल आदि करने वाला अन्त प्रान्ताहारी साधु कर्मों को भेदन करने में समर्थ होता है। उसका तप अति प्रधान है। काष्ठ के सार भाग को खाने वाले घुण के समान सब विगय सहित आहार करने वाले साधु का तप बाहरी छाल खाने वाले घुण के समान कहा गया है यानी जैसे बाहरी छाल खाने वाले घुण का मुख अतितीक्ष्ण न होने से वह काठ को भेद कर उसका सार भाग खाने में असमर्थ होता है उसी प्रकार सब विगयसहित आहार करने वाले साधु का तप कर्मों को भेदन करने में असमर्थ होता है। अतएव इस साधु का तप अप्रधानतर यानी तिजघन्य तप कहा गया है। भीतरी छाल खाने वाले घुण के समान लेप रहित आहार करने वाले साध का तप काष्ठ खाने वाले घुण के समान कहा गया है अर्थात् इसका तप न तो अति तीव्र है और न अति मन्द है अतएव इसका तप प्रधान है। काष्ठ को खाने वाले घुण के समान विगय रहित आहार करने वाले साधु का तप भीतरी छाल को खाने वाले घुण के समान कहा गया है। इसका तप अप्रधान है। प्रथम घुण के समान असार एवं अन्तप्रान्त आहार करने वाले मुनि का तप प्रधानतर, दूसरे घुण के समान लेप रहित आहार करने वाले मुनि का तप प्रधान, तीसरे घुण के समान विगय रहित आहार करने वाले मुनि का तप अप्रधान और चौथे घुण के समान सब विगय सहित आहार करने वाले मुनि का तप . अप्रधानतर यानी सर्वनिकृष्ट कहा गया है।
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