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श्री स्थानांग सूत्र 000000000000000000000000000000000000000000000000000 ___ भक्त कथा अर्थात् आहार कथा करने से गृद्धि होती है और आहार बिना किए ही गृद्धि आसक्ति से साधु को इङ्गाल आदि दोष लगते हैं। लोगों में यह चर्चा होने लगती है कि यह साधु अजितेन्द्रिय है। इन्होंने खाने के लिए संयम लिया है। यदि ऐसा न होता तो ये साधु आहार कथा क्यों करते ? अपना स्वाध्याय, ध्यान आदि क्यों नहीं करते ? गृद्धि भाव से षट् जीव निकाय के वध की अनुमोदना लगती है तथा आहार में आसक्त साधु एषणाशुद्धि का विचार भी नहीं कर सकता। इस प्रकार भक्त कथा के अनेक दोष हैं।
देश कथा करने से विशिष्ट देश के प्रति राग या दूसरे देश से अरुचि होती है। रागद्वेष से कर्मबन्ध होता है। स्वपक्ष और परपक्ष वालों के साथ इस सम्बन्ध में वादविवाद खड़ा हो जाने पर झगड़ा हो सकता है। देश वर्णन सुनकर दूसरा साधु उस देश को विविध गुण सम्पन्न सुनकर वहाँ जा सकता है। इस प्रकार देश कथा से अनेक दोषों की संभावना है। ___ उपाश्रय में बैठे हुए साधुओं को राज कथा करते हुए सुन कर राजपुरुष के मन में ऐसे विचार आ सकते हैं कि ये वास्तव में साधु नहीं हैं ? सच्चे साधुओं को राजकथा से क्या प्रयोजन ? मालूम होता है कि ये गुप्तचर या चोर हैं। राजा के अमुक अश्व का हरण हो गया था, राजा के स्वजन को किसी ने मार दिया था। उन अपराधियों का पता नहीं लगा। क्या ये वे ही तो अपराधी नहीं हैं ? अथवा ये उक्त काम करने के अभिलाषी तो नहीं हैं ? राजकथा सुनकर किसी राजकुल से दीक्षित साधु को भुक्त भोगों का स्मरण हो सकता है। अथवा दूसरा साधु राजऋद्धि सुन कर नियाणा कर सकता है। इस प्रकार राजकथा के ये तथा और भी अनेक दोष हैं। . ,
चार प्रकार के पुरुष, केवलज्ञान केवलदर्शन के बाधक कारण चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता तंजहा - किसे णाममेगे किसे, किसे णाममेगे दढे, दढे णाममेगे किसे, दढे णाममेगे दढे । चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता तंजहा - किसे णाममेगे किस सरीरे, किसे णाममेगे दढसरीरे, दढे णाममेगे किस सरीरे, दढे णाममेगे दढसरीरे । चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता तंजहा - किससरीरस्स णाममेगस्स णाणदंसणे समुप्पजइ णो दढसरीरस्स, दढसरीरस्स णाममेगस्स णाणदंसणे समुष्पज्जइ णो किससरीरस्स, एगस्स किससरीरस्स वि णाण दंसणे समुप्पजइ दढसरीरस्स वि। एगस्स णो किससरीरस्स णाणदंसणे समुप्पज्जइ णो दढसरीरस्स । चउहिं ठाणेहिं णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा अस्सिं समयंसि अइसेसे णाणदंसणे समुप्पजिउकामे वि ण समुप्पज्जेज्जा तंजहा - अभिक्खणं अभिक्खणं इत्थीकहं भत्तकहं देसकहं
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