Book Title: Sthananga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 386
________________ स्थान ४ उद्देशक ३ ३६९ णिग्गंथे महाकम्मे महाकिरिए अणायावी असमिए धम्मस्स अणाराहए भवइ, ओमरायणिए समणे णिग्गंथे अप्पकम्मे अप्पकिरिए आयावी समिए धम्मस्स आराहए भवइ । चत्तारि णिग्गंथीओ पण्णत्ताओ एवं चेव । चत्तारि समणोवासगा पण्णत्ता एवं चेव। एवं चेव चत्तारि समणोवासियाओ पण्णत्ताओ तहेव चत्तारि गमा॥१७०॥ ___कठिन शब्दार्थ - आमलगमहुरे - आंवले जैसा मीठा, मुहियामहुरे - मृद्विका (दाख) जैसा मीठा, खीरमहुरे- क्षीर (दूध) जैसा मीठा, खंडमहुरे - शक्कर जैसा मीठा, आयरिया - आचार्य, आयवेयावच्चकरे - अपनी वैयावृत्य करने वाला, परंवेयावच्चकरे - दूसरों की वैयावच्च करने वाला, अट्ठकरे - अर्थकर-धन प्राप्त करने वाला, माणकरे - अभिमान करने वाला, गणट्ठकरे - गण का हित करने वाला, गणसंग्गहकरे - गण के लिये ज्ञानादि का संग्रह करने वाला, गणसोभकरे - गण की शोभा करने वाला, जहइ - छोड़ देता है, गणसंठिई - गच्छ की मर्यादा को, पियधम्मे - प्रियधर्मी, दढधम्मे - दृढधर्मी, पव्यायणायरिए - प्रव्राजनाचार्य-दीक्षा देने वाले आचार्य, उवट्ठाणायरिए - उपस्थापनाचार्य, उद्देसणायरिए - उद्देशनाचार्य-अगादि सूत्र प्रारम्भ कराने वाले, वायणायरिए - वाचनाचार्य, अंतेवासीशिष्य, रायणिए - रत्नाधिक, महाकम्मे - महाकर्म वाला, महाकिरिए - महाक्रिया वाला, आयावी - आतापी-आतापना लेने वाला, अणायावी - अनातापी-आतापना नहीं लेने वाला। भावार्थ - चार प्रकार के फल कहे गये हैं यथा - एक फल आंवले जैसा मीठा, एक फल दाख जैसा मीठा, एक फल दूध (क्षीर) जैसा मीठा, एक फल शक्कर जैसा मीठा । इसी तरह चार प्रकार के आचार्य कहे गये हैं यथा - आंवले के समान मधुर यावत् शक्कर के समान मधुर । जिस प्रकार आंवला, दाख, खीर और शक्कर ये चारों पदार्थ क्रमशः कुछ मीठे, मीठे, अधिक मीठे और बहुत अधिक मीठे होते हैं उसी प्रकार आचार्य भी क्रमशः अल्प, अधिक, ज्यादा अधिक और बहुत ज्यादा अधिक उपशम आदि गुण रूपी मधुरता से युक्त होते हैं। ___चार प्रकार के पुरुष कहे गये हैं यथा - कोई एक पुरुष अपनी ही वैयावच्च करता है किन्तु दूसरों की वैयावच्च नहीं करता है जैसे विसम्भोगिक अकेला साधु या आलसी। कोई एक दूसरों की वैयावच्च करता है. किन्तु अपनी वैयावच्च नहीं करता है, जैसे स्वार्थ बुद्धिरहित कोई साधु । कोई एक अपनी वैयावच्च भी करता है और दूसरों की वैयावच्च भी करता है । जैसे स्थविरकल्पी साधु । कोई एक न तो अपनी वैयावच्च करता है और न दूसरों की वैयावच्च करता है । जैसे संथारा किया हुआ मुनि या कोई अभिग्रहधारी मुनि । चार प्रकार के पुरुष कहे गये हैं यथा - कोई एक दूसरों की वैयावच्च करता है किन्तु दूसरों से अपनी वैयावच्च नहीं करवाता है, जैसे कोई स्वार्थबुद्धि रहित पुरुष । कोई एक दूसरों से वैयावच्च करवाता है किन्तु दूसरों की वैयावच्च नहीं करता है, जैसे आचार्य तथा बीमार साधु आदि । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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