Book Title: Sthananga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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श्री स्थानांग सूत्र
प्रकार कार्य करता है, एक नोतथापुरुष यानी स्वामी जैसी आज्ञा देता है वैसा कार्य नहीं करता किन्तु स्वामी की आज्ञा से विपरीत कार्य करता है, एक पुरुष सौवस्तिक यानी माङ्गलिक वचन बोलने वाला होता है और एक पुरुष प्रधान यानी इन सब का स्वामी होता है । चार प्रकार के पुरुष कहे गये हैं । यथा - कोई एक पुरुष आत्म-अन्तकर यानी सिर्फ अपनी आत्मा का ही कल्याण करता है दूसरों का कल्याण नहीं करता, जैसे प्रत्येक बुद्ध आदि। कोई एक पुरुष दूसरों का कल्याण करता है किन्तु उसी भव में अपनी आत्मा को मोक्ष नहीं पहुंचाता है, जैसे अचरम शरीरी आचार्य आदि, कोई एक पुरुष अपनी आत्मा का भी कल्याण करता है और दूसरों का भी कल्याण करता है, जैसे तीर्थङ्कर भगवान् : तथा अन्य साधु आदि, कोई एक पुरुष न तो अपनी आत्मा का कल्याण करता है और न दूसरों का कल्याण करता है, जैसे कालिकाचार्य आदि या मूर्ख । चार प्रकार के पुरुष कहे गये हैं । यथा - कोई एक पुरुष अपनी आत्मा पर ही क्रोध करता है किन्तु दूसरों पर क्रोध नहीं करता है, कोई एक पुरुष दूसरों पर क्रोध करता है किन्तु अपनी आत्मा पर क्रोध नहीं करता है, कोई एक पुरुष अपनी आत्मा पर भी क्रोध करता है और दूसरों पर भी क्रोध करता है, कोई एक पुरुष न तो अपनी आत्मा पर क्रोध करता है और न दूसरों पर क्रोध करता है। चार प्रकार के पुरुष कहे गये हैं यथा - कोई एक पुरुष अपनी आत्मा का दमन करता है किन्तु दूसरों का दमन नहीं करता है, कोई एक पुरुष दूसरों का दमन करता है किन्तु अपनी आत्मा का दमन नहीं करता है, कोई एक पुरुष अपनी आत्मा का भी दमन करता है और दूसरों का भी दमन करता है, कोई एक पुरुष न तो अपनी आत्मा का दमन करता है। और न दूसरों का दमन करता है । चार प्रकार की गर्दा कही गई है । यथा - अपने दोष निवेदन करने के लिए मैं गुरु महाराज के पास जाता हूँ इस प्रकार विचार करना एक यानी पहली गर्दा है, 'मैं अपने दोषों की विशेष प्रकार से गर्दा करता हूँ' इस प्रकार का विचार करना एक गर्दा है 'जो कुछ दोष मुझे लगा है वह मिथ्या हो' यह एक गर्दा है । जिन भगवान् ने अमुक दोष की शुद्धि इस प्रकार फरमाई है', इस प्रकार विचार करना एक गर्दा है ।
विवेचन - शोभन रीति से मर्यादा पूर्वक अस्वाध्याय काल का परिहार करते हुए शास्त्र का अध्ययन करना स्वाध्याय है। चार महा प्रतिपदाओं में नंदी सूत्र आदि विषयक वाचनादि स्वाध्याय करना नहीं कल्पता है किन्तु अनुप्रेक्षा (चिंतन) का निषेध नहीं है। इसी प्रकार चार संध्याओं में भी स्वाध्याय करना उचित नहीं है। अस्वाध्याय में स्वाध्याय नहीं करने का कारण बताते हुए वृत्तिकार ने कहा है -
सुयणायंमि अभत्ती लोगविरुद्धं पमत्त छलणा य । विज्जासाहणवेगुण्ण धम्मया एव मा कुणसु ॥
'अर्थात् - अनध्याय (अस्वाध्याय) में स्वाध्याय करना भक्ति-विरुद्ध है। लोकाचार के विपरीत है अशुद्ध उच्चारण से विपरीतार्थ की भावना के कारण अभीष्ट सिद्धि में बाधा पहुंचने की सम्भावना रहती
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