Book Title: Sthananga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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श्री स्थानांग सूत्र 000000000000000000000000000000000000000000000000000
कठिन शब्दार्थ - सुकुल पच्चायाई - सुकुल प्रत्याजाति-देवलोक से चव कर श्रेष्ठ कुल में उत्पन्न होना, पढमसमय जिणस्स - प्रथम समय जिन-सयोगी केवली के, कम्मंसे - काश, उप्पण्णणाणदंसणधरे - केवलज्ञान केवलदर्शन को धारण करने वाले, जुगवं - एक साथ, खिज्जति - क्षीण होती है।
भावार्थ - चार दुर्गति कही गई है । यथा - नैरयिक दुर्गति, तिर्यञ्चयोनि दुर्गति, निन्दित मनुष्य की अपेक्षा मनुष्य दुर्गति और किल्विषिक आदि देवों की अपेक्षा देव दुर्गति। चार सुगति कही गई है यथा - सिद्ध सुगति, देव सुगति, मनुष्य सुगति और सुकुल प्रत्याजाति अर्थात् देवलोकादि में जाकर फिर वहाँ से चवने के बाद श्रेष्ठ कुल में उत्पन्न होना । चार दुर्गत यानी दुर्गति में उत्पन्न होने वाले कहे गये हैं यथा - नैरयिक दुर्गत, तिर्यञ्चयोनिक दुर्गत, मनुष्य दुर्गत यानी नीच कुल में उत्पन्न मनुष्य और देवदुर्गत यानी किल्विषी आदि देवों में उत्पन्न देव । चार सुगत यानी अच्छी गति वाले कहे गये हैं यथा- सिद्धसुगत यावत् मनुष्य सुगत, देवसुगत और सुकुल प्रत्याजात यानी देवलोकादि से चव कर उत्तम कुल में उत्पन्न मनुष्य ।।
प्रथम समय जिन यानी सयोगी केवली के चार कांश यानी कर्मों की सब प्रकृतियाँ क्षीण हो जाती है यथा - ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय । केवलज्ञान और केवलदर्शन को धारण करने वाले अरिहन्त, राग द्वेष को जीतने वाले जिन केवली भगवान् चार कर्मों की प्रकृतियों को वेदते हैं यथा - वेदनीय, आयुष्य, नाम और गोत्र । प्रथम समय में सिद्ध होने वाले केवली भगवान् के चार कर्मों की प्रकृतियाँ एक साथ क्षीण होती है यथा - वेदनीय, आयुष्य, नाम और गोत्र ।
विवेचन - निंदित मनुष्य की अपेक्षा मनुष्य दुर्गति और किल्विषिक आदि देवों की अपेक्षा देव दुर्गति कही गयी है । 'सुकुल पच्चायाइ' का अर्थ है सुकुल प्रत्याजाति अर्थात् देवलोक आदि में जाकर इक्ष्वाकु आदि सुकुल में उत्पन्न होना । प्रत्याजाति अर्थात् प्रतिजन्म-पुनः जन्म लेना । युगलिक आदि मनुष्यत्व रूप मनुष्य की सुगति से इस सुकुल में जन्म लेने रूप मनुष्य सुगति का भेद बताया है । दुर्गति में रहे हुए दुर्गत और सुगति में रहे हुए सुगत कहलाते हैं ।
प्रथम समय है जिसका वो प्रथम समय ऐसे जिन-सयोगी केवली । उस प्रथम समय जिन के सामान्य रूप कर्म के अंश-ज्ञानावरणीय आदि भेद क्षय होते हैं । आवरण का क्षय होने से उत्पन्न हुए विशेष और सामान्य पदार्थों के बोध रूप ज्ञान और दर्शन को धारण करने वाले उत्पन ज्ञान दर्शनधर कहलाते हैं। . जिससे कोई वस्तु गुप्त नहीं है ऐसे अरहः क्योंकि समीप, दूर, स्थूल और सूक्ष्म रूप समस्त पदार्थ समूह का साक्षात्कार करने वाले होने से अथवा देवादि के द्वारा पूजा के योग्य होने से अर्हन् । रागादि जीतने वाले होने से जिन । केवल परिपूर्ण ज्ञान है जिसका वह केवली कहलाता है । सिद्धत्व 'और कर्म के क्षय का एक समय में संभव होने से प्रथमसमय सिद्ध आदि कथन किया जाता है ।
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