Book Title: Sthananga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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स्थान ४ उद्देशक १
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__भरत, ऐरवत क्षेत्रों में पहले एवं चौबीसवें तीर्थंकरों के सिवाय शेष २२ तीर्थंकर भगवान् चतुर्याम-चार महाव्रत रूप धर्म की प्ररूपणा करते हैं। इसी प्रकार महाविदेह क्षेत्र में भी अरिहन्त भगवान् चार महाव्रत रूप धर्म फरमाते हैं। वे चार महाव्रत इस प्रकार हैं - १. सर्व प्राणातिपात से निवृत्ति २. सर्व मृषावाद से निवृत्ति ३. सर्व अदत्तादान से निवृत्ति ४. सर्व बहिर्द्धादान यानी बाहरी वस्तु ग्रहण करने से निवृत्ति । सर्वथा मैथुन निवृत्त रूप महाव्रत का परिग्रह निवृत्ति व्रत में ही समावेश किया जाता है । क्योंकि अपरिगृहीत स्त्रियाँ आदि भोग सामग्री का उपभोग नहीं होता। - चतुर्याम और पंचयाम रूप धर्म फरमाने का कारण बताते हुए उत्तराध्ययन सूत्र के केशी गौतमिय नामक तेईसवें अध्ययन में इस प्रकार फरमाया है -
पुरिमा उज्जुजड्डा उ, वंक्कजड्डा य पच्छिमा । मज्झिमा उजुपण्णा उ, तेण धम्मे दुहा कए।
- प्रथम तीर्थंकर के साधु साध्वी सरल और जड़ (मन्द बुद्धि वाले) होते हैं। अंतिम तीर्थंकर के साधु साध्वी वक्र और जड़ होते हैं अर्थात् प्रकृति के टेढ़े और बुद्धि के मन्द होते हैं। बीच के बाईस तीर्थंकरों के साधु साध्वी प्रकृति से सरल और तीक्ष्ण बुद्धि वाले होते हैं। इस कारण से चतुर्याम और पांच महाव्रत रूप धर्म कहा है।
पुरिमाणं दुव्विसोझो उ, चरिमाणं दुरणुपालए। कप्पो मज्झिमगाणं तु सुविसुज्झो सुपालए।
- प्रथम तीर्थंकर के साधु साध्वियों को धर्म दुर्बोध्य है तथा अंतिम तीर्थंकर के साधु साध्वियों को धर्म दुःख पूर्वक पालन किया जाता है और मध्य के साधु साध्वियों को धर्म सुबोध्य और सुख पूर्वक पाला जाता है ।
... दुर्गति एवं सुगति, कांश क्षीणता ___चत्तारि दुग्गईओ पण्णत्ताओ तंजहा - णेरइय दुग्गई, तिरिक्ख जोणिय दुग्गई, मणुस्स दुग्गई, देव दुग्गई । चत्तारि सुग्गईओ पण्णत्ताओ तंजहा - सिद्ध सुग्गई, देव सुग्गई, मणुय सुग्गई, सुकुल पच्चायाई । चत्तारि दुग्गया पण्णत्ता तंजहा - रइय दुग्गया, तिरिक्खजोणिय दुग्गया, मणुय दुग्गया, देव दुग्गया । चत्तारि सुग्गया पण्णत्ता तंजहा - सिद्ध सुग्गया, जाव सुकुल पच्चायाया ।
पढमसमय जिणस्स णं चत्तारि कम्मंसा खीणा भवंति तंजहा - णाणावरणिज, दंसणावरणिजं, मोहणिजे, अंतराइयं । उप्पण्णणाणदंसणधरेणं अरहा जिणे केवली चत्तारि कम्मंसे वेदेति तंजहा - वेयणिज्ज आउयं णामं गोयं । पढमसमय सिद्धस्स णं चत्तारि कम्मंसा जुगवं खिजति तंजहा- वेयणिजं, आउयं, णाम, गोयं ॥१४०॥
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