Book Title: Sthananga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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श्री स्थानांग सूत्र
४. अनुप्रेक्षा - सूत्र अर्थ का चिन्तन एवं मनन करना अनुप्रेक्षा है।
धर्मध्यान की चार भावनाएं - १. एकत्व भावना २. अनित्य भावना ३. अशरण भावना ४. संसार भावना
१. एकत्व भावना - "इस संसार में मैं अकेला हूँ, मेरा कोई नहीं है और न मैं ही किसी का हूँ।" ऐसा भी कोई व्यक्ति नहीं दिखाई देता जो भविष्य में मेरा होने वाला हो अथवा मैं जिस का बन सकूँ।" इत्यादि रूप से आत्मा के एकत्व अर्थात् असहायपन की भावना करना एकत्व भावना है। जैसा कि कहा है -
आप अकेला अवतरे, मरे अकेला होय। यों कब हूँ या जीव को, साथी सगा न कोय॥
अर्थ - यह जीव जन्मा तब अकेला ही जन्मा था और मृत्यु के समय जब मरेगा तब अकेला ही मरेगा। संसार सपना नहीं कोई अपना । यह भावना नमिराजर्षि ने भाई थी।
२. अनित्य भावना - "शरीर अनेक विघ्न बाधाओं एवं रोगों का घर है। सम्पत्ति विपत्ति का स्थान है। संयोग के साथ वियोग है। उत्पन्न होने वाला प्रत्येक पदार्थ नश्वर है। इस प्रकार शरीर, जीवन तथा संसार के सभी पदार्थों के अनित्य स्वरूप पर विचार करना अनित्य भावना है। जैसा कि कहा है -
राजा राणा छत्रपति, हाथिन के असवार। मरना सब को एक दिन अपनी अपनी बार॥
अर्थ - गरीब से लेकर धनवान् और बड़ी से बड़ी पदवी को धारण करने वाले राजा महाराजा चक्रवर्ती सम्राट भी अपने मरण के समय में आप ही मरता है उसके बदले उसके परिवार का कोई सदस्य अथवा अधीनस्थ कोई राजा आदि नहीं मरता है। अनित्य भावना भरत चक्रवर्ती ने भाई थी। .
३. अशरण भावना - जन्म, जरा, मृत्यु के भय से पीड़ित, व्याधि एवं वेदनां से व्यथित इस संसार में आत्मा का त्राण रूप कोई नहीं है। यदि कोई आत्मा का त्राण करने वाला है तो जिनेन्द्र भगवान् का प्रवचन ही एक त्राण शरण रूप है। इस प्रकार आत्मा के त्राण शरण के अभाव की चिन्ता करना अशरण भावना है। जैसा कि कहा है -
दल, बल देवी देवता, मात-पिता परिवार। मरती बिरियाँ जीव को, कोई न राखन हार॥ .
अर्थ - मृत्यु से बचाने में कोई त्राण शरण रूप नहीं है। धर्म ही एक सच्चा त्राण शरण रूप है। अतः प्राणी को धर्म का आचरण करना चाहिए। यह भावना अनाथी मुनि ने भाई थी।
४. संसार भावना - इस संसार में माता बन कर वही जीव, पुत्री, बहिन एवं स्त्री बन जाता है और पुत्र का जीव पिता, भाई यहाँ तक कि शत्रु बन जाता है। इस प्रकार चार गति में, सभी अवस्थाओं में संसार के विचित्रता पूर्ण स्वरूप का विचार करना संसार भावना है। जैसा कि कहा है -
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