________________
स्थान ४ उद्देशक १
Jain Education International
000000000000
चार कषाय कहे गये हैं यथा - क्रोध कषाय, मान कषाय, माया कषाय और लोभ कषाय । इस प्रकार नैरयिकों से लेकर वैमानिक देवों तक चौवीस ही दण्डक में चारों कषाय कह देने चाहिये । क्रोध कषाय चतुःप्रतिष्ठित यानी चार स्थानों में रहने वाला कहा गया है यथा- आत्मप्रतिष्ठित यानी अपनी आत्मा के अपराध से अपनी आत्मा पर ही उत्पन्न होने वाला क्रोध, पर प्रतिष्ठित यानी दूसरे से कठोर वचन सुन कर उत्पन्न होने वाला क्रोध अथवा दूसरों पर होने वाला क्रोध, तदुभयप्रतिष्ठित यानी अपने पर और दूसरों पर दोनों पर होने वाला क्रोध और अप्रतिष्ठित यानी आक्रोशादि किसी निमित्त कारण के बिना ही केवल क्रोधवेदनीय के उदय से उत्पन्न होने वाला क्रोध । इसी प्रकार नैरयिकों से लेकर वैमानिक देवों तक चौबीस ही दण्डक में कह देना चाहिए । इसी प्रकार लोभ तक यानी मान, माया और लोभ ये तीनों कषाय नैरयिकों से लेकर वैमानिक देवों तक चौबीस ही दण्डक में कह देना चाहिये। चार कारणों से क्रोध की उत्पत्ति होती है यथा क्षेत्र आश्रित, वस्तु आश्रित, शरीर आश्रित और उपधि यानी उपकरण आश्रित 1 इस प्रकार नैरयिकों से लेकर वैमानिक देवों तक चौबीस ही • दण्डकों में कह देना चाहिए । इसी प्रकार लोभ तक यानी मान, माया और लोभ इन का कथन नैरयिकों से लेकर वैमानिक देवों तक चौबीस ही दण्डक में जान लेना चाहिए । क्रोध चार प्रकार का कहा गया है यथा- अनन्तानुबन्धी क्रोध, अप्रत्याख्यान क्रोध, प्रत्याख्यानावरण क्रोध, संज्वलन क्रोध । इस प्रकार नैरयिकों से लेकर वैमानिक देवों तक चौबीस ही दण्डक में कह देना चाहिये । इसी प्रकार मान, माया और लोभ के भी अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन, ये चार चार भेद कह देने. चाहिये और नैरयिकों से लेकर वैमानिक देवों तक चौबीस ही दण्डक में कह देना चाहिए । क्रोध चार प्रकार का कहा गया है यथा- आभोगनिवर्तित यानी क्रोध के फल को जानते हुए जो क्रोध किया जाता है वह आभोगनिवर्तित क्रोध है। क्रोध के फल को न जानते हुए जो क्रोध किया जाता है वह अनाभोगनिवर्तित क्रोध है। जो क्रोध सत्ता में हो किन्तु उदयावस्था में न हो वह उपशान्त क्रोध है और उदयावस्था में रहा हुआ क्रोध अनुपशान्त क्रोध है । इस प्रकार नैरयिकों से लेकर वैमानिक देवों तक चौबीस ही दण्डक में कह देना चाहिए । इसी प्रकार मान, माया और लोभ के भी उपरोक्त चार चार भेद कह देने चाहिए और नैरयिकों से लेकर वैमानिक देवों तक चौबीस ही दण्डक में कह देने चाहिए।
विवेचन - कषाय की व्याख्या और भेद -
कषाय मोहनीय कर्म के उदय से होने वाले क्रोध, मान, माया, लोभ रूप आत्मा के परिणाम विशेष जो सम्यक्त्व, देशविरति, सर्वविरति और यथाख्यात चारित्र का घात करते हैं वे कषाय कहलाते हैं।
कषाय के चार भेद - १. क्रोध २. मान ३. माय ४. लोभ ।
१. क्रोध - क्रोध मोहनीय के उदय से होने वाला, कृत्य अकृत्य के विवेक को हटाने वाला,
-
२७५
For Personal & Private Use Only
www.jalnelibrary.org