Book Title: Sthananga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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श्री स्थानांग सूत्र
न करने वाला, वाइत्तए - वाचना देना, विउसिय पाहुडे - व्यवसित प्राभृत-क्रोध को उपशांत करने वाला, दुसण्णप्पा - दुःसंज्ञाप्य, दुद्वे - दुष्ट, मूढे - मूढ, वुग्गाहिए - व्युदग्राहित-कुगुरुओं द्वारा भ्रमित, सुसण्णप्पा - सुसंज्ञाप्य-सरलता से समझाने योग्य।
भावार्थ - तीन पुरुष वाचना के अयोग्य हैं। यथा - अविनीत, घृत आदि विगयों में गृद्धि भाव रखने वाला और क्रोध को उपशान्त न करने वाला अर्थात् अत्यन्त क्रोधी। तीन पुरुषों को वाचना देना कल्पता है। यथा - विनीत, विगयों में गृद्धिभाव न रखने वाला और क्रोध को उपशान्त करने वाला। तीन पुरुष दुःसंज्ञाप्य कहे गये हैं अर्थात् इनको समझाना बहुत मुश्किल होता है। यथा - दुष्ट यानी तत्त्व समझाने वाले पुरुष के साथ द्वेष रखने वाला, मूर्ख यानी गुण दोषों को न जानने वाला, व्युद्ग्राहित यानी कुगुरुओं द्वारा भरमाया हुआ। तीन पुरुष सुसंज्ञाप्य अर्थात् सरलता से समझाने योग्य कहे गये हैं। यथा - अदुष्ट यानी तत्त्वों के प्रति रुचि रखने वाला और तत्त्वप्ररूपक के प्रति द्वेष न रखने वाला, अमूर्ख यानी गुण दोषों को जानने वाला और अव्युद्ग्राहित यानी कुगुरुओं के द्वारा न भरमाया हुआ। इन तीन को तत्त्व समझाना सरल होता है।.
विवेचन - अवायणिज्जा अर्थात् न वाचनीयाः - सूत्र पढ़ाने के योग्य नहीं, इसी कारण से अर्थ को भी सुनाने में योग्य नहीं क्योंकि सूत्र से अर्थ का महत्त्व है उसमें अविनीत व्यक्ति सूत्र और अर्थ के दाता का वंदन आदि विनय रहित होता है अतः उसको वाचना देना दोष ही है। कहा भी है -
इहरहवि ताव थब्भइ, अविणीओ लंभिओ किमु सुएणं? माणट्ठो णासिहिई, खए व खारोवसेगो उ॥ - - गोजूहस्स पडागा, सयं पलायस्स वद्ध य वेगे। दोसोदए य समणं ण होइण णियाणतुल्लं च ॥
अर्थात् - श्रुत के अभ्यास के बिना भी अविनीत स्तब्ध (अभिमानी) होता है तो फिर श्रुत के लाभ से स्तंभित अधिक अभिमानी हो इसमें कहना ही क्या ? जैसे घाव में नमक छिडकने की तरह अविनीत व्यक्ति श्रत को पाकर स्वयं नाश को प्राप्त हुआ क्या दूसरों का नाश नहीं करता है ? जैसे ग्वाला गायों के आगे होकर पताका दिखाता है तब गायें वेग से चलती है उसी प्रकार अविनीत प्राणी को पढाया हुआ श्रुत भी दुर्विनय को बढाने वाला है। उदाहरणार्थ-रोगों के उदय में शमन औषध नहीं दी जाती है क्योंकि निदान-मूल कारण से उत्पन्न हुई व्याधि को शमन औषध से रोग वृद्धि का भय रहता है। .
विणया हीया विजा, देइ फलं इह परे य लोयंमि । न फलंतऽविणयगहिया, सस्साणिव तोयहीणाई।
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