Book Title: Sthananga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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श्री स्थानांग सूत्र
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है । आगम में दूसरी जगह तो इस प्रकार बतलाया गया है कि बीमार साधु के लिए बहुमूल्य औषधि (हेमगर्भ का घासा, कस्तूरी, दीवालमुश्क) की तीन दत्ति अर्थात् तीन खुराक से अधिक एक साथ नहीं लानी चाहिए। क्योंकि यदि वह काल धर्म को प्राप्त हो जाय तो बाकी की बची हुई औषधि निरर्थक, बेकार चली जाती हैं।
तिर्हि ठाणेहिं समणे णिग्गंथे साहम्मियं संभोगियं विसंभोगियं करेमाणे णाइक्कमइ तंजहा - सयं वा दट्टु, सङ्गृस्स वा णिसम्म, तच्चं मोसं आउट्टड्इ चउत्थं णो आउट्टइ। तिविहा अणुण्णा पण्णत्ता तंजहा - आयरियत्ताए उवज्झायत्ताए गणित्ताएं । एवं उवसंपया, एवं विजहणा ॥ ८८ ॥
कठिन शब्दार्थ - साहम्मियं साधर्मिक को, संभोगियं सम्भोगिक को, विसंभोगियं
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विसम्भोगिक, ण - नहीं, अइक्कमइ - आज्ञा का उल्लंघन करता है, दट्टु - देख कर, सगुस्स श्रद्धावान् अर्थात् साधु और श्रावक के, आउछ प्रायश्चित आदि देता हैं, अणुण्णा - अनुज्ञा, गणित्ता - गणी रूप से, उवसंपया उपसम्पदा, विजहणा - विजहना - त्यागना ।
भावार्थ तीन कारणों से अपने साधर्मिक सम्भोगिक साधु को विसम्भोगिक करता हुआ श्रमण निर्ग्रन्थ भगवान् की आज्ञा का उल्लंघन नहीं करता है यथा किसी साधु ने अकल्पनीय ग्रहण आदि दोष का सेवन किया हो, उस दोष को स्वयं अपनी आंखों से देख कर अथवा किसी साधु एवं श्रद्धावान श्रावक के मुख से सुन कर, उस साधु से पूछे। यदि पूछने पर वह इन्कार कर जाय तो उसका निर्णय करके उसे उचित प्रायश्चित्त देकर शुद्ध करे। इस प्रकार तीन बार झूठ बोलने तक उसे आलोचना आदि प्रायश्चित्त देकर शुद्ध करे किन्तु चौथी बार उसको आलोचना आदि प्रायश्चित्त न दे किन्तु उसे विसम्भोगिक कर दे यानी गच्छ से बाहर निकाल दे। तीन प्रकार की अनुज्ञा - अधिकार देना यानी पदवियाँ कही गई है यथा- आचार्य, उपाध्याय और गणी। इसी प्रकार उपसम्पदा भी तीन प्रकार की है और इसी प्रकार विजहना भी तीन प्रकार की है।
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विवेचन - साहम्मियं - साधर्मिक-जो समान धर्म से चलते हैं-वर्तते हैं वे 'साधर्मिक' कहलाते हैं। सम् यानी एकत्रित, भोग अर्थात् भोजन, एक साथ भोजन करना संभोग है। जिन साधुओं में समान समाचारी होने के कारण परस्पर उपधि आदि देने लेने रूप संव्यवहार है वे सम्भोगिक कहलाते हैं। जिनमें देने लेने का परस्पर व्यवहार नहीं है वे विसंभोगिक कहलाते हैं।
आचार्य - ज्ञान, दर्शन, चरित्र, तप और वीर्य इन पांच प्रकार के आचार का स्वयं पालन करने वाले एवं अन्य साधुओं से पालन कराने वाले गच्छ के नायक आचार्य कहलाते हैं।
उपाध्याय - शास्त्रों को स्वयं पढ़ने एवं दूसरों को पढ़ाने वाले मुनिराज उपाध्याय कहलाते हैं।
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