Book Title: Sthananga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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स्थान ३ उद्देशक ३
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भावार्थ - तीन प्रकार के पुरुष कहे गये हैं यथा - सूत्र को धारण करने वाले, अर्थ को धारण करने वाले, सूत्र और अर्थ दोनों को धारण करने वाले। साधु साध्वियों को तीन प्रकार के वस्त्र धारण करना और पहनना अर्थात् उपभोग परिभोग में लाना कल्पता है यथा - जाङ्गिक यानी ऊन के बने हुए, भाङ्गिक यानी अलसी सण आदि के बने हुए और क्षोमिक यानी कपास के बने हुए। साधु साध्वियों को तीन प्रकार के पात्र रखना और काम में लाना कल्पता है यथा - तुम्बी का पात्र, लकड़ी का पात्र और मिट्टी का पात्र । तीन कारणों से साधु साध्वी वस्त्र धारण करते हैं यथा - लज्जा और संयम की रक्षा के लिए, प्रवचन की निन्दा से बचने के लिए और डांस मच्छर आदि के परीषह से बचने के लिए। तीन आत्मरक्षक कहे गये हैं यथा - धार्मिक उपदेश से प्रेरणा करने वाला अर्थात् अकार्य में प्रवृत्ति करने वाले को धर्मोपदेश देकर कहे कि तुम्हारे सरीखे पुरुष को यह अकार्य करना उचित नहीं है अथवा अपने में समझाने की शक्ति न हो तो मौन रहे। अथवा उपदेश देने का सामर्थ्य न हो और मौन भी न रहा जा सके तो आप स्वयं वहाँ से उठ कर एकान्त स्थान में चला जाय। प्यास से ग्लानि को प्राप्त होते हुए साधु के लिए अचित्त जल की तीन दत्तियां लेना कल्पता है यथा - उत्कृष्ट मध्यम और जघन्य। . ___ विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में सूत्रकार ने साधु साध्वियों के लिये तीन प्रकार के वस्त्र और तीन प्रकार के पात्रों को रखना बतलाया है। बृहत्कल्प सूत्र आदि में पात्रों की संख्या ४ से अधिक नहीं बतलाई गई है अर्थात् अधिक से अधिक चार पात्र रखे जा सकते हैं। इनके अतिरिक्त पानी ठंडा रखने के लिए मटकी आदि रखने का निषेध किया गया है। इनके अतिरिक्त शेष सभी प्रकार के वस्त्र और पात्र रखने का स्वतः निषेध हो जाता है अर्थात् प्लास्टिक आदि के पात्र रखना आगम सम्मत नहीं हैं। इसमें चार की संख्या का अतिक्रमण भी हो जाता है। ____ प्रस्तुत सूत्र में धारित्तए वा परिहरित्तए वा ये दो क्रिया पद दिये हैं। धारित्तए स्वीकार करने के अर्थ में है और परिहरित्तए-परिहरण करने -काम में लेने के अर्थ में है। कहा है - 'धारणया उवभोगो, परिहरणे होइ परिभोग' - धारण करना उपभोग और परिहरण-काम में लेना परिभोग कहलाता है।
आत्मरक्षक - राग द्वेष से, अकृत्य से अथवा भव रूप कुएं से जो आत्मा की रक्षा करता है वह आत्म-रक्षक कहलाता है।
दत्ति - अविच्छिन्न धारा के रूप में जल आदि पदार्थ जितना एक बार पात्र में डाला जाय उसे दत्ति कहते हैं।
पदार्थ के गुणों की दृष्टि से दाख आदि का धोवन उत्कृष्ट, चावल का पानी या कांजी का पानी मध्यम और गर्म पानी जघन्य कहलाता है। - नोट :- मूल सूत्र में तीन विकट दत्तियों' का लेने का कहा है। टीकाकोर ने इसकी टीका भी लिखी है किन्तु टीका से मूल सूत्र का आशय स्पष्ट नहीं होता है क्योंकि मूल सूत्र गम्भीर अर्थ वाला
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