Book Title: Sthananga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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श्री स्थानांग सूत्र 000000000000000000000000000000000000000000000000000 - विवेचन - पदार्थ के भेद आदि का कथन करके प्ररूपणा करना प्रज्ञापना कहलाती है। प्रज्ञापना तीन प्रकार की कही है - १. ज्ञान प्रज्ञापना - आभिनिबोधिक (मति) आदि ज्ञान पांच प्रकार का है। २. दर्शन प्रज्ञापना - दर्शन (सम्यक्त्व) क्षायिक आदि तीन प्रकार की है यथा-औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक। सास्वादन समकित उपशम समकित का भेद है तथा वेदक समकित क्षयोपशम का ही भेद है इसलिए यहाँ पर इन दोनों का ग्रहण नहीं किया गया है। ३. चारित्र प्रज्ञापना - चारित्र के सामायिक आदि पांच भेद हैं।
सम्यक् अर्थात् अविपरीत, मोक्ष सिद्धि के आश्रय के अनुरूप जो अर्थ है वह सम्यक् अर्थ है। ज्ञान, दर्शन, चारित्र के भेद से तीन प्रकार का सम्यक् कहा है।
जिस अकल्पनीय आहारादि के सेवन से संयम का विनाश हो जाय, उसे उपघात कहते हैं। उद्गम के १६ दोष इस प्रकार है - आहाकम्मु १ देसिय २, पूइकम्मे य मीस जाए ४ य। ठवणा ५ पाहुडियाए ६, पाओयर ७ कीय ८ पामिच्चे ९।। परियट्टिए १० अभिहडे ११ उभिण्णे १२ मालोहडे इय। अच्छेज्जे १४ अणिसट्टे १५, अज्झोयरए य सोलसमे। १. आधाकर्म - किसी साधु के निमित्त से आहारादि बनाना। आधाकर्म शब्द की व्युत्पत्ति इस
प्रकार है -
___"आधया साधु प्रणिधानेन यत् सचेतनं अचेतनं क्रियते, अचेतनं वा पच्यते, व्यूह्यते वस्त्रादिकं, विरच्यते गृहादिकं तत् आधाकर्म" . अर्थ - साधु के निमित्त सचित्त वस्तु को अचित्त करना अर्थात् फलादि को काट कर रखना, अचित्त वस्तु को पकाना अर्थात् रोटी, ओदन आदि भात बनाना तथा वस्त्र बुनना और मकान अर्थात् स्थानक, उपाश्रय आदि बनाना ये सब साधु के लिए बनाना आधा कर्म दोष से दूषित होता है।
२. औदेशिक - जिस साधु के लिए आहारादि बना है, उसके लिए तो वह आधाकर्मी है, किन्तु ऐसे आहार को दूसरे साधु लें। तो उन के लिए वह औद्देशिक है।
३. पूतिकर्म - शुद्ध आहार में आधाकर्मी आदि दूषित आहार का कुछ अंश मिलाना।
४. मिश्रजात - अपने और साधुओं के लिए एक साथ बनाया हुआ आहार। अर्थात् आज सर्दी का मौसम है इसलिए दाल का सीरा और बड़े बना लो अपन भी खाएंगे और साधु जी को भी बहरा देंगे। इसको मिश्र जात दोष कहते हैं।
५. स्थापना - साधु को देने के लिये अलग रख छोड़ना। अर्थात् यह वस्तु उसी साधु साध्वी को देना दूसरों को न देना स्थापना दोष है।
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