Book Title: Sthananga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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श्री स्थानांग सूत्र 000000000000000000000000000000000000000000000000000 गृद्ध बन कर मैंने चारित्र का विशुद्ध रूप से यानी अतिचार रहित पालन नहीं किया। इन तीन कारणों से देव पश्चात्ताप करता है। तीन कारणों से देव इस बात को जान लेता है कि अब मैं यहाँ से चयूँगा। यथा- अपने विमान और आभूषणों को निष्प्रभ यानी कान्तिहीन देख कर, कल्पवृक्ष को म्लान देख कर
और अपनी तेजो लेश्या यानी शरीर की दीप्ति को हीन जान कर, इन तीन कारणों से देव यह जान जाता है कि अब मैं यहाँ से चयूँगा। अपने च्यवन को नजदीक आया जान कर देव तीन कारणों से उद्वेग की प्राप्त होता है। यथा - अहो ! मुझे यह ऐसी दिव्य देव ऋद्धि, दिव्य देवधुति और दिव्य देवानुभाव प्राप्त हुआ है, मिला है, सन्मुख उपस्थित हुआ है, इन सब को छोड़ कर मुझे यहाँ से चवना पड़ेगा। अहो ! यहाँ से चवने के बाद गर्भवास में जाते ही सब से पहले माता का रज और पिता का वीर्य इन दोनों का परस्पर मिला हुआ आहार लेना पड़ेगा। अहो ! पेट में रहे हुए पदार्थ रूप कीचड़ युक्त अशुचि के भण्डार उद्वेगकारी भयङ्कर गर्भावास में मुझे रहना पड़ेगा। इन तीन कारणों से देव उद्वेग को प्राप्त होता है। विमान तीन संस्थान वाले कहे गये हैं। यथा - वृत्त यानी गोल, त्र्यस्र-त्रिकोण यानी तीन कोनों वाले और चतुरस्र-चतुष्कोण यानी चार कोनों वाले। उनमें जो विमान गोल हैं वे पुष्करकर्णिका यानी कमल के मध्यभाग के समान आकार वाले हैं और चारों तरफ तथा चारों विदिशाओं में कोट से घिरे हुए हैं तथा एक द्वार वाले हैं। ऐसा कहा गया है। उनमें जो त्रिकोण विमान हैं वे सिंघाड़े के समान आकार वाले दो तरफ कोट से घिरे हुए एक तरफ वेदिका से घिरे हुए और तीन द्वार वाले कहे गये हैं। उनमें जो चतुष्कोण विमान हैं वे अखाड़े के समान आकार वाले चारों तरफ तथा चारों विदिशाओं में वेदिका से घिरे हुए और चार द्वार वाले कहे गये हैं। विमान तीन वस्तुओं के आधार पर रहे हुए हैं। ऐसा कहा गया है। यथा - पहले, दूसरे देवलोक के विमान घनोदधि पर रहे हुए हैं तीसरे, चौथे और पांचवें देवलोक के विमान घनवात पर रहे हुए हैं और छठे, सातवें और आठवें देवलोक के विमान घनोदघि घनवात पर रहे हुए हैं और इनसे ऊपर के सब देवलोकों के विमान आकाश के आधार पर रहे हुए हैं। विमान तीन प्रकार के कहे गये हैं। यथा - अवस्थित, वैक्रियक और परियानक।
विवेचन - देवता के पश्चात्ताप करने के तीन कारण हैं - ...
१. मैं बल, वीर्य, पुरुषकार पराक्रम से युक्त था। मुझे पठनोपयोगी सुकाल प्राप्त था। कोई उपद्रव भी नहीं था। शास्त्र ज्ञान के दाता आचार्य, उपाध्याय महाराज विद्यमान थे। मेरा शरीर भी नीरोग था। इस प्रकार सभी सामग्री के प्राप्त होते हुए भी मुझे खेद है कि मैंने बहुत शास्त्र नहीं पढ़े।
___२. खेद है कि परलोक से विमुख होकर ऐहिक सुखों में आसक्त हो, विषय पिपासु बन मैंने चिरकाल तक श्रमण (साधु) पर्याय का पालन नहीं किया। ____३. खेद है कि मैंने ऋद्धि, रस और साता गारव (गौरव) का अभिमान किया। प्राप्त भोग
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