Book Title: Sthananga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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स्थान ३ उद्देशक १
१६१ 000000000000000000000000000000000000000000000000000 मज्झिमा जहण्णा एवं छप्पि समाओ भाणियव्वाओ जाव सुसमसुसमा। तिहिं ठाणेहिं अच्छिण्णे पोग्गले चलेजा तंजहा - आहारिज्जमाणे वा पोग्गले चलेजा विकुव्वमाणे वा पोग्गले चलेजा, ठाणाओ वा ठाणं संकामिजमाणे पोग्गले चलेग्जा। तिविहा उवही पण्णत्ता तंजहा - कम्मोवही सरीरोवही बाहिरभंडमत्तोवही, एवं असुरकुमाराणं भाणियव्वं । एवं एगिदियणेरड्यवजं जाव वेमाणियाणं। अहवा तिविहा उवही पण्णत्ता तंजहा - सचित्ते, अचित्ते, मीसए, एवं णेरइयाणं णिरंतरं जाव वेमाणियाणं। तिविहे परिग्गहे पण्णत्ते तंजहा - कम्मपरिग्गहे, सरीर परिग्गहे, बाहिरभंडमत्तपरिग्गहे, एवं असुरकुमाराणं एवं एगिंदियणेरइयवजं जाव वेमाणियाणं। अहवा तिविहे परिग्गहे पण्णत्ते तंजहा-सचित्ते अचित्ते मीसए, एवं रइयाणं णिरंतरं जाव वेमाणियाणं।८। - कठिन शब्दार्थ - अणियाणयाए - अनिदानता-नियाणा न करने से, दिट्ठिसंपण्णयाए - दृष्टि सम्पन्नता से, जोगवाहियाए- योगवाहिता से, संपण्णे - धर्म क्रिया से संपन्न (युक्त), अणाइयं - अनादि, अणवयग्गं - अनन्त, दीहमद्धं - दीर्घ मार्ग वाले, चाउरतं - चतुर्गति रूप, संसारकंतारं - संसार रूपी महान् अटवी का, वीइवएजा - उल्लंघन कर जाता है, अच्छिण्णे - अच्छिन्न, संकामिजमाणे - संक्रमण किया जाता हुआ, कम्मोवही - कर्मोपधि, सरीरोवही - शरीरोपधि बाहिरभंडमत्तपरिग्गहे - बाहरी बर्तन वस्त्र आदि परिग्रह।
भावार्थ - अनिदानता अर्थात् कामभोगों का तथा ऋद्धि आदि का नियाणा न करने से दृष्टि सम्पन्नता अर्थात् शत्रु मित्र पर समदृष्टि रखने से और योगवाहिता अर्थात् शास्त्र पढने के लिए शास्त्रोक्त तप की आराधना से अथवा चित्त को समाधिस्थ रखने से इन तीन कारणों से धर्म क्रिया से युक्त साधु इस अनादि अनन्त दीर्घ मार्ग वाले चतुर्गति रूप संसार रूपी महान् अटवी का उल्लङ्घन कर जाता है । तीन प्रकार का अवसर्पिणी काल कहा गया है। यथा - उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य । इस प्रकार यावत् दुष्षमा दुष्षम तक छहों आरों के प्रत्येक के उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य ये तीन तीन भेद कह देने चाहिए। उत्सर्पिणी काल तीन प्रकार का कहा गया है। यथा - उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य। इस प्रकार यावत् सुषमासुषम तक छहों आरों के प्रत्येक के उत्कृष्ट, मध्यम और अधम ये तीन तीन भेद कह देने चाहिएं। तीन कारणों से अच्छिन्न यानी तलवार आदि से बिना काटा हुआ पुद्गल चलित होता है। यथा - जीव के द्वारा आहार रूप से ग्रहण किया जाता हुआ पुद्गल चलित होता है । देव और मनुष्य वैक्रिय करे तब पुद्गल चलित होता है। एक स्थान से दूसरे स्थान में संक्रमण किया जाता हुआ पुद्गल चलित होता है। उपधि यानी परिग्रह तीन प्रकार का कहा गया है। यथा - कर्म रूप उपधि, शरीरोपधि और बाहर के बर्तन वस्त्र आदि इस प्रकार असुरकुमारों तक के कह देना चाहिए। इसी प्रकार एकेन्द्रिय
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