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तिविहा लोगठिई पण्णत्ता तंजहा - आगासपइट्ठिए वाए, वायपइट्ठिए उदही, उदहिपट्टिया पुढवी । तओ दिसाओ पण्णत्ताओ तंजहा - उड्डा, अहो, तिरिया । तिहिं दिस्साहिं जीवाणं गई पवत्तइ उड्डाए. अहोए तिरियाए । एवं आगई, वक्कंती, आहारे, वुड्डी, णिवुड्डी, गइपरियाए, समुग्धाए, कालसंजोगे, दंसणाभिगमे, णाणाभिगमे, जीवाभिगमे । तिहिं दिसाहिं जीवाणं अजीवाभिगमे पण्णत्ते तंजहा - उड्डाए अहोए तिरियाए । एवं पंचिदिंयतिरक्खजोणियाणं, एवं मणुस्साणं वि ॥ ८२ ॥
कठिन शब्दार्थ - लोगठिई - लोक स्थिति, वाए - वायु, आगासपइट्ठिए आकाश प्रतिष्ठित, उदही - पानी, वायपइट्ठिए वायु प्रतिष्ठित, पुढवी- पृथ्वी, उदहिपइट्टिया - समुद्र प्रतिष्ठित, दिसाओदिशाएँ, उड्डो - ऊर्ध्व, अहो - अधो, तिरियाए तिर्यक्, वक्कंती - उत्पत्ति, वुड्डी - वृद्धि, णिवुड्डी - निवृद्धि-हानि, गइपरियाए - गति पर्याय, कालसंजोगे - काल संयोग (मरण), दंसणाभिगमे दर्शनाभिगम, णाणाभिगमे - ज्ञानाभिगम, जीवाभिगमे - जीवाभिगम-जीवों का ज्ञान, अजीवाभिगमे - अजीवाभिगम-अजीवों का ज्ञान ।
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स्थान ३ उद्देशक २
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वायु, आकाश
भावार्थ - तीन प्रकार की लोकस्थिति यानी लोक व्यवस्था कही गई है यथा प्रतिष्ठित-आकाश के आधार पर रही हुई है, पानी वायु प्रतिष्ठित है और पृथ्वी समुद्र प्रतिष्ठित है । तीन दिशाएं कही गई हैं यथा ऊर्ध्व दिशा, अधोदिशा और तिर्यक् दिशा । ऊर्ध्व, अधो और तिर्यक् इन तीन दिशाओं में जीवों की गति होती है। इसी प्रकार आगति, उत्पत्ति, आहार, वृद्धि, निवृद्धि यानी हानि, गतिपर्याय यानी हलन चलन, समुद्घात, कालसंयोग यानी मरण, दर्शनाभिगम यानी अवधिदर्शन आदि द्वारा बोध होना, ज्ञानाभिगम और जीवाभिगम यानी जीवों का ज्ञान होना । ये सब बातें उपरोक्त तीन दिशाओं में होती है। इसी प्रकार ऊर्ध्व दिशा, अधो दिशा और तिर्यक् दिशा इन तीन दिशाओं में जीवों को अजीवों का ज्ञान होता हैं। इसी प्रकार तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय और मनुष्यों को उपरोक्त तीन दिशाओं में रहे हुए पदार्थों का ज्ञान होता है।
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विवेचन - तीसरा स्थान होने से सूत्रकार ने यहां लोक स्थिति तीन प्रकार की कही है। भगवती सूत्र के शतक १ उद्देशक ६ में लोक स्थिति आठ प्रकार की कही है। विशेष जानकारी के लिये जिज्ञासुओं को वहां देखना चाहिये ।
दिशा का स्वरूप बताते हुए टीकाकार ने कहा है- 'दिश्यते - व्यपदिश्यते पूर्वादितया वस्त्वनयेति दिक्' - जिसके द्वारा पूर्व आदि रूपों से वस्तु व्यवहार (निर्देश) किया जाता है वह दिशा है।
तिर्यक् लोक के मध्य में रत्नप्रभा पृथ्वी के ऊपर मेरु पर्वत के बहुमध्य देश भाग में सबसे छोटे दो प्रतर हैं। उसके ऊपर के प्रतर के चार प्रदेश गोस्तनाकार है और नीचे के प्रतर के भी चार प्रदेश
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