Book Title: Sthananga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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स्थान २ उद्देशक ४
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नामक तीसरे देवलोक में देवों की जघन्य स्थिति दो सागरोपम कही गई है। माहेन्द्र नामक चौथे देवलोक में देवों की जघन्य स्थिति दो सागरोपम से कुछ अधिक कही गई है। सौधर्म और ईशान इन दो देवलोकों में कल्प स्त्रियाँ यानी देवियाँ होती है। सौधर्म और ईशान इन दो देवलोकों में देवों की तेजोलेश्या कही गई है। सौधर्म और ईशान इन दो देवलोकों में देव कायपरिचारक अर्थात् मनुष्य की तरह काया से कामभोग का सेवन करते हैं ऐसा कहा गया है। सनत्कुमार और माहेन्द्र यानी तीसरे और चौथे इन दो देवलोकों में देव स्पर्शपरिचारक कहे गये हैं अर्थात् देवियों के शरीर को स्पर्श करने मात्र से ही इन देवों की कामवासना शान्त हो जाती है। ब्रह्मलोक और लान्तक अर्थात् पांचवे और छठे इन दो देवलोकों में देव रूपपरिचारक कहे गये हैं अर्थात् देवियों के रूप को देख कर ही इन देवों की कामवासना शान्त हो जाती है। महाशुक्र और सहस्रार अर्थात् सातवें और आठवें इन दो देवलोकों में देव शब्दपरिचारक कहे गये हैं अर्थात् देवियों के मधुर शब्दों को सुन कर ही इन देवों की कामवासना शान्त हो जाती हैं। प्राणतेन्द्र यानी नवें दसवें देवलोक का इन्द्र और अच्युतेन्द्र यानी ग्यारहवें और बारहवें, देवलोक का इन्द्र ये दो इन्द्र तथा इन चारों देवलोकों के देव मन परिचारक कहे गये हैं अर्थात् अपने मन में देवियों का चिन्तन करने मात्र से ही इन देवों की कामवासना शान्त हो जाती है। त्रसकाय से निर्वर्तित स्थावर काय से निर्वर्तित इन दो स्थानों से निर्वर्तित अर्थात् त्रस और स्थावर काय में उत्पन्न होकर जीवों ने कर्मपुद्गलों को पापकर्म रूप से इकट्ठे किये हैं, इकट्ठे करते हैं और इकट्ठे करेंगे। इसी प्रकार कर्मों का उपचय किया है, उपचय करते
हैं और उपचय करेंगे। कर्मों का पन्ध किया है, बन्ध करते हैं और बन्ध करेंगे। इसी प्रकार कर्मों की - उदीरणा की है, उदीरणा करते हैं और उदीरणा करेंगे। कर्मों का वेदन किया है, वेदन करते हैं और वेदन करेंगे। इसी प्रकार कर्मों की निर्जरा की है, निर्जरा करते हैं और निर्जरा करेंगे। द्विप्रदेशी स्कन्ध अनन्त कहे गये हैं। दो प्रदेशों को अवगाहन कर रहे हुए पुद्गल अनन्त कहे गये हैं। इसी प्रकार . यावत् द्विगुणरूक्ष पुद्गल अनन्त कहे गये हैं।
विवेचन - परिचारक-परिचरंति - जो स्त्री का सेवन (भोग) करते हैं वे परिचारक कहलाते हैं। जो काया से परिचारणा करते हैं वे काय परिचारक हैं। जो अंग के स्पर्श मात्र से वेद (उपताप) की शांति करने वाले हैं वे स्पर्श परिचारक हैं। मन से विषय का सेवन करने वाले मनः परिचारक कहलाते हैं। परिचारणा के लिए कहा है -
दो कायप्पवियारा कप्पा, फरिसेण दोण्णि दो रूवे। सहे दो चउर मणे, उवरि परियारणा णत्थि ॥
- पहले दूसरे दो देवलोकों के देव काया से विषय सेवन करते हैं। तीसरे चौथे देवलोक के देव स्पर्श से, पांचवे छठे देवलोक के देव रूप से, सातवें आठवें देवलोक के देव शब्द से और शेष
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