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स्थान २ उद्देशक ४
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दोहिं ठाणेहिं आया सरीरं फुसित्ताणं णिज्जाइ तंजहा, देसेण वि आया सरीरं फुसित्ताणं णिज्जाइ, सव्वेण वि आया, सरीरं फुसित्ताणं णिज्जाइ। एवं फुसित्ताणं एवं फुडित्ताणं एवं संवट्टित्ताणं णिवट्टित्ताणं। दोहिं ठाणेहिं आया केवलिपण्णत्तं धम्मं लभेज्जा सवणयाए तंजहा खएण चेव उवसमेण चेव, एवं जाव मणपज्जव णाणं उप्पाडेज्जा तंजहा खएण चेव उवसमेण चेव॥४६॥
कठिन शब्दार्थ - फुसित्ताणं - स्पर्श करके, णिजाइ - निकलता है, देसेण - देश से, सव्वेणसब प्रदेशों से, फुडित्ताणं - स्फुरित होकर, अथवा-स्फोटन करके, संवट्टित्ताणं - संकोच करके, णिवट्टित्ताणं - पृथक् कर के, केवलि पण्णत्तं - केवली प्रज्ञप्त, धम्म - धर्म को, सवणयाए लभेजा- श्रवण कर सकता है, खएण - क्षय से, उवसमेण - उपशम से, उप्पाडेजा - उत्पन्न कर सकता है। - भावार्थ - दो स्थानों से आत्मा शरीर का स्पर्श करके निकलता है यथा देश से यानी पैर आदि अङ्गों से इलिका गति में, आत्मा शरीर का स्पर्श करके निकलता है इस प्रकार शरीर के किसी अङ्ग में से निकलने वाला जीव चारों गतियों में से किसी एक गति में जाता है और गेंद की तरह सब प्रदेशों से आत्मा शरीर का स्पर्श करके निकलता है सब अंगों से निकलने वाला जीव मोक्ष में जाता है। इसी प्रकार देश से और सर्वप्रदेशों से स्फुरित होकर के स्फोटन करके आत्मा निकलता है। इसी प्रकार इलिका गति में देश से और कन्दुक गति में सर्वप्रदेशों से संकोच करके तथा जीव प्रदेशों से शरीर को पृथक् करके आत्मा शरीर से निकलता है।
दो स्थानों से आत्मा केवलिभाषित धर्म को श्रवण कर सकता है यथा उदय में आये हुए ज्ञानावरणीय और दर्शन मोहनीय के क्षय से और उदय में नहीं आये हुए के उपशम से। .
इसी प्रकार क्षय से और उपशम से आत्मा यावत् मनःपर्यय ज्ञान तक उत्पन्न कर सकता है। . विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में सूत्रकार ने आत्मा के शरीर त्याग एवं अन्य शरीर के ग्रहण के समय की सूक्ष्म गति का विश्लेषण किया है। जब आत्मा शरीर का त्याग करती है तो देश रूप से भी करती है और सर्व रूप से भी करती है। यहाँ पांच प्रकार के शरीर समुदाय की अपेक्षा देश से औदारिक आदि शरीर को छोड़ कर तैजस कार्मण शरीर को ग्रहण कर भवान्तर में जाना और सर्व से सभी (पांचों) शरीरों का त्याग करना अर्थात् सिद्ध होना है।
___ यह दूसरा ठाणा है। यहां दो दो का अधिकार होने से 'क्षय और उपशम' ये दो शब्द दिये हैं किन्तु यहाँ अर्थ 'क्षयोपशम' से है। क्योंकि यहाँ मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान इन चार ज्ञानों का कथन किया गया है, ये चारों ज्ञान क्षायोपशमिक भाव में हैं। केवलज्ञान क्षायिक भाव में हैं। उसका यहाँ कथन नहीं किया है।
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