Book Title: Sthananga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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श्री स्थानांग सूत्र
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१४. बोधि दण्डक - जिन जीवों को जैन धर्म की प्राप्ति सुलभ है वे सुलभबोधिक और जिन जीवों को जैन धर्म की प्राप्ति दुर्लभ है वे दुर्लभ बोधिक कहलाते हैं। १५. पाक्षिक दंडक - शुक्ल विशुद्ध रूप से जो पक्ष है वह शुक्लपक्ष, शुक्लपक्ष वाले शुक्लपाक्षिक कहलाते हैं। कहा है- किरियाबाई भव्वे णो अभव्वे सुक्कपक्खिए जो किन्ह पक्खिए - क्रियावादी भव्य होते हैं अभव्य नहीं, शुक्ल पाक्षिक होते है कृष्ण पाक्षिक नहीं होते । अथवा शुक्ल-आस्तिकपन से विशुद्ध है जिनका पक्ष-समूह वह शुक्ल पक्ष और जो शुक्ल पक्ष वाले हैं वे शुक्ल पाक्षिक और इससे विपरीत पक्ष वाले कृष्ण पाक्षिक कहलाते हैं।
१६. चरम दंडक - ज़िन जीवों का नरक आदि अंतिम भव होता है अर्थात् पुनः जो नरक आदि में उत्पन्न नहीं होते हैं कारण कि मोक्ष में जाने से वे चरम कहलाते हैं जो पुनः नरक आदि में उत्पन्न होने वाले हैं वे अचरम कहलाते हैं।
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दोहिं ठाणेहिं आया अहे लोगं जाणइ पासइ, तंजहा - समोहएणं चेव अप्पाणेणं आया अहे लोगं जाणइ पासइ, असमोहएणं चेव अप्पाणेणं आया अहे लोगं जाणइ पासइ । आहोहि समोहयासमोहएणं चेव अप्पाणेणं आया अहे लोगं जाणइ पासइ, एवं तिरियलोगं, उडलोगं, केवलकप्पलोगं । दोहिं ठाणेहिं आया अहे लोगं जाणइ पासइ तंजहा - विउव्विएणं चेव अप्पाणेणं आया अहे लोगं जाणइ पासइ, अविउठिवएणं चेव अप्पाणेणं आया अहे लोगं जाणइ पासइ, आहोहि विउब्वियाविउव्विएणं चेव अप्पाणेणं आया अहे लोगं जाणंइ पासइ, एवं तिरियलोगं, उड्डलोगं, केवलकप्पलोगं । दोहिं ठाणेहिं आया सहाई सुणेइ तंजहा - देसेण वि आया सहाई सुणेs, सव्वेण वि आया सद्दाई सुणेइ, एवं रूवाई पासइ, गंधाई अग्धाइ, रसाई आसाएइ, फासाइं पडिसंवेदेइ । दोहिं ठाणेहिं आया ओभास तंजहादेसेण वि आया ओभासइ, सव्वेण वि आया ओभासइ, एवं पभासइ, विकुव्वइ, परियारे, भासं भासइ, आहारेइ, परिणामेइ, वेएइ, णिज्जरेइ । दोहिं ठाणेहिं देवे सद्दाई सुणेइ तंजहा - देसेण वि देवे सहाई सुणेइ, सव्वेण वि देवे सद्दाई सुणेइ जाव जिरे । मरुया देवा दुविहा पण्णत्ता तंजहा - एगसरीरे चेव, बिसरीरे चेव, एवं किण्णरा, किंपुरिसा, गंधव्वा, जागकुमारा, सुवण्णकुमारा, अग्गिकुमारा, वाउकुमारा । देवा दुविहा पण्णत्ता तंजहा- एग सरीरे चैव बिसरीरे चेव ॥ २९ ॥
।। बीअट्ठाणस्स बीओ उद्देसो समत्तो ।।
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