Book Title: Sthananga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
श्री . स्थानांग सूत्र
है यथा - देव देश से शब्दों को सुनता है और देव सर्व से शब्दों को सुनता है यावत् निर्जरा करता है। लोकान्तिक देव दो प्रकार के कहे गये हैं यथा जब भवधारणीय शरीर होता है तब एक शरीर वाले और जब उत्तर वैक्रिय शरीर धारण करते हैं तब दो शरीर वाले होते हैं। इसी प्रकार किन्नर, किंपुरुष, गन्धर्व, नागकुमार, सुवर्णकुमार, अग्निकुमार और वायुकुमार आदि देव एक शरीर वाले और दो शरीर वाले होते हैं। अब सभी देवों के विषय में सामान्य सूत्र बतलाया जाता है सब देव दो प्रकार के कहे गये हैं यथा- एक शरीर वाले और दो शरीर वाले होते हैं।
विवेचन - आत्मा समुद्घात करके और बिना समुद्घात किये अधोलोक को अवधिज्ञान से जानती है और अवधिदर्शन से देखती है। .
७८
-
'आहोहि' (अधोहि) शब्द के दो संस्कृत रूप बनते यथावधि और अधोऽवधि । जिसको जैसा अवधिज्ञान प्राप्त है वह यथावधि अथवा परमावधि से अधोवर्ती (न्यून) अवधिज्ञान को अधोअवधि कहते हैं। ऐसा नियत क्षेत्र के विषय वाला अवधिज्ञानी समवहत- समुद्घात करके अथवा असमवहत-समुद्घात किये बिना जानता देखता है इसी प्रकार तिर्यग् लोक ऊर्ध्वलोक और परिपूर्ण चौदह राजू लोक को जानता देखता है इसी प्रकार वैक्रिय शरीर करके आत्मा अधोलोक आदि को जानता देखता है और वैक्रिय शरीर किये बिना भी आत्मा अधोलोक आदि को जानता देखता है। देश से और सर्व से इन दो स्थानों से आत्मा शब्दों को सुनता है रूपों को देखता है गंधों को सूंघता है रसों का आस्वाद लेता है और स्पर्शों का अनुभव करता है। इस प्रकार आत्मा देश और सर्व से प्रकाशित होता है, विशेष रूप से प्रकाशित होता है, वैक्रिय करता है, मैथुन सेवन करता है, भाषा बोलता है, आहार करता है, आहार का परिणमन करता है, वेदन करता है और निर्जरा करता है। मरुत देव लोकान्तिक देव विशेष है। कहा है
Jain Education International
-
सारस्वतादित्यवह्न्यरुणगर्दतोयतुषिताव्याबाधमरुतो ऽरिष्टाश्च ॥ २६ ॥
अर्थ १. सारस्वत २. आदित्य ३. वह्नि ४. वरुण (अरुण ) ५. गर्दतोय ६. तुषित ७. अव्याबाध ८. मरुत (आग्नेय) और ९. अरिष्ट (रिष्ट) । (तत्त्वार्थ अ. ४ सू० २३ )
इनमें से पहले के आठ देव आठ कृष्ण राजियों के बीच में रहते हैं और नौवा रिष्ट नामक देव कृष्ण राजियों के मध्य भाग में रिष्टाभ नामक विमान के प्रतर में रहते हैं।
ये लोकान्तिक देव एक शरीर वाले होते हैं क्योंकि विग्रह गति में कार्मण शरीर है उसके बाद वैक्रिय भाव से दो शरीर वाले होते हैं। दोनों शरीरों का समाहार - एकत्रिभूत दो शरीर हैं जिनके वे दो शरीर वाले जब भवधारणीय (मूल) शरीर ही हो तब एक शरीर वाले और जब उत्तर वैक्रिय करते हैं तब दो शरीर वाले होते हैं। किन्नर, किंपुरुष और गन्धर्व ये तीन व्यंतर जाति के देव हैं और नागकुमार आदि चार भवनपति देवों के भेद हैं। यहाँ अमुक संख्या में ही भेद लिये हैं जो दूसरे भेदों
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org