________________
३० :
श्रमण, वर्ष ५५, अंक १-६/जनवरी-जून २००४
(१२) त्रैराशिक, जिसे पाटीगणित में सर्वाधिक प्रमुखता प्राप्त है जैनाचार्यों में प्रारम्भ से ही लोकप्रिय रहा है। श्रीधर के पाटीगणितसार, महावीराचार्य के गणितसारसंग्रह, वीरसेन की धवला, नेमिचन्द्र के त्रिलोकसार सहित अनेक जैन ग्रन्थों में त्रैराशिक, व्यस्त त्रैराशिक तथा मिश्रानुपात के अनेकों प्रयोग मिलते हैं। इन उदाहरणों में स्वभाविकता, सरसता एवं बोधगम्यता है एवं यही है इस क्षेत्र में जैनाचार्यो का वैशिष्ट्य।
(१३) लोक संरचना के विवेचन के सन्दर्भ में जैन वांङ्मय के करणानुयोग विभाग के ग्रन्थों में क्षेत्रगणित विषयक सामग्री विपुल परिमाण में उपलब्ध है। ज्योतिर्विज्ञान के प्राचीनतम उपलब्ध ग्रन्थ सूर्यप्रज्ञप्ति में ८ विशिष्ट प्रकार की आकृतियों एवं भगवतीसूत्र तथा अनुयोगद्वारसूत्र में ५ विशेष प्रकार की ज्यामितीय आकृतियों की चर्चा है। सूत्रकृतांग में इस विषय को गणितसरोज की संज्ञा दी गई है। जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, तत्वार्थाधिगमसूत्रभाष्य, ज्योतिषकरण्डक, जीवाभिगमसूत्र, तिलोयपण्णत्ती, धवला, जंबूद्दीवपण्णतिसंगहो, त्रिलोकसार आदि १०-११वीं शताब्दी ई० से पूर्व के ग्रन्थों में विभिन्न ज्यामितीय आकृतियों के क्षेत्रफल, परिधि ज्ञात करने के अनेकों सूत्र उपलब्ध हैं। धवला टीका के एक अंग 'क्षेत्रप्रमाणानुगम' में भी महत्वपूर्ण ज्यामितीय विवेचनों का बाहल्य है। इसमें किसी भी जटिल आकृति का क्षेत्रफल ज्ञात करने की विच्छेदन आदि ८ विधियाँ दी हैं। वृत्त विषयक ज्यामिति के विकास तो पूर्ण रूप से जैनाचार्यों की ही देन है।
जैन गणितज्ञों में शीर्षस्थ महावीराचार्य ने यवाकार, मुरजाकार, पणवाकार, वज्राकार, एक निषेध क्षेत्र, तीन या चार संस्पर्शी वृत्तों से आबद्ध क्षेत्र का क्षेत्रफल ज्ञात करने के सूत्र सर्वप्रथम दिये। क्षेत्रमिति के महत्वपूर्ण आनुपातिक स्थिरांक, परिधि/ व्यास जिसे वर्तमान में 1 की संज्ञा दी जाती है, का मान सूर्यप्रज्ञप्ति, ज्योतिषकरण्डक, भगवतीसूत्र, तिलोयपण्णत्ती एवं गणितसारसंग्रह में 10, जीवाभिगम सूत्र में 10 तथा ३.१६ मिलता है। धवला में T का मान आश्चर्यजनक रूप से शुद्ध तथा सम्पूर्ण भारतीय साहित्य में उपलब्ध मानों से भिन्न रूप में ३५५/ ११३ मिलता है।
(१४) ठोस ज्यामिति के नियमों का लोक के स्वरूप के विवेचन हेतु ज्ञान जैनाचार्यों हेतु आवश्यक था। उन्होंने अधिकांश ज्यामितीय आकृतियों के २ रूपों प्रतर एवं घन की चर्चा की है। घन से आशय ठोस आकृति से है। भगवतीसूत्र एवं अनुयोगद्वारसूत्र में घनत्रयस्र, घन चतुरस्र, घनायत, घनवृत्त तथा
घनपरमिण्डल क्रमश: प्रिज्म, घन, आयतफलकी, गोला एवं बेलन हेतु प्रयुक्त हुये Jain Education International For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org