Book Title: Sramana 2004 01
Author(s): Shivprasad
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 273
________________ अर्थ :. वळी, हे पुत्र ! तारा पिताजी वड़े मेळवेली लक्ष्मी जे छे जेनो भोगवटो करतां पण निश्चे खाली करवा माटे तुं समर्थ नथी। हिन्दी अनुवाद :- पुनः हे पुत्र ! तेरे पिताजी द्वारा अर्जित धन भी काफी है, तू यथेच्छया उस लक्ष्मी का विलास करेगा तो भी रिक्त करने में तू समर्थ नहीं है। गाहा :- अविय। जणएण य तुह पुत्तय ! अत्युप्पत्तीए कारणं जं जं । तं सव्वं कारवियं किं कज्जं तुह वणिज्जेण? ||२२९।। छाया: जनकेन च तव पुत्रक ! अस्ति उत्पत्ती कारणं यद्! यद्। तद् सर्व कारितं किं कार्य तव वाणिज्येन ? ||२२९।। अर्थ :- अने हे पुत्र ! तारा पिताजीए धन उपार्जन माटे जे जे करवु जोइए ते बधुं कर्यु छे, अने कराव्यु छे, पछी तारे वेपारथी शुं काम छे ?" हिन्दी अनुवाद :- और हे पुत्र ! धनोपार्जन हेतु जो जो करना चाहिए वह सब तेरे पिताजी ने किया है और कराया है, अत: व्यापार से तुझे क्या काम है!" गाहा : भणिय घणदेवेणं जावज्जवि अम्मि ! बालओ पुत्तो । ताव निय-जणणि-सिहिणे करिसंतो लहइ सोहंपि ।।२३०॥ छाया : गणितं धनदेवेन यावदधापि अम्बे ! बालकः पुत्रः । तावत् निज-जननीस्तनी कर्षन् लभते शोभामपि ।।२३०॥ . अर्थ :- धनदेव वडे कठेवायुं हे माता ! “ज्यांसुधी पुत्र बालक होय त्यां सुधी माताना स्तनने खेचतो पण शोभा पामे छे।" हिन्दी अनुवाद :- धनदेव ने कहा - "हे माता ! जब तक पुत्र बालक रहता है तब तक माता के स्तन को खींचने पर भी शोभा पाता है। गाहा : वोलीण-बाल-भावो छिप्पड पावेण तं करेमाणो । तह पिउ-लच्छी जणणिब्ध होई सुसमत्थ-पुत्ताणं ।।२३१।। छाया: व्युत्कान्तबालभावः स्पृश्यते पापेन तत् कुर्वन् । तथा पितृ-लक्ष्मीः जननी इव भवति सुसमर्थ-पुत्राणाम्।।२३१॥ अर्थ :- ओळंगी गयेला बालभाव वाळो तेवी क्रीया करतो पापवड़े स्पर्शाय छ। (लेपाय छे) तेम सारा-समर्थपुत्रोने पितानी लक्ष्मी माता जेवी थाय छे। हिन्दी अनुवाद :- किन्तु बालभाव से रहित वैसी क्रिया करे तो पाप होता है, वैसे ही कुलीनसमर्थपुत्र को पिता की लक्ष्मी माता जैसी है। 67 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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