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इस लघु ग्रन्थ का आधार चूड़ामणि नामक कोई प्राचीन ग्रन्थ है जो अब अनुपलब्ध है। कहारयणकोस और सुपासनाहचरिय में उक्त ग्रन्थ का उल्लेख है। भद्रलक्षण कृत चूड़ामणिसार तथा पार्श्वचन्द्र मुनि-कृत हस्तकाण्ड का आधार चूड़ामणि ही है । गद्यात्मक चूड़ामणि की रचना अनुश्रुति के अनुसार पाँचवीं शताब्दी में हुई थी। इस ग्रन्थ के कर्ता कोई दुर्विनीत नामक राजा थे।
जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग ५ में इस ग्रन्थ की प्राकृत गाथाओं की संख्या भूल से चौहत्तर लिख दी गयी है। वस्तुत: इस में सब मिला कर तिहत्तर गाथायें ही हैं। इन तिहत्तर गाथाओं में भी विषय-वस्तु का प्रतिपादन केवल बहत्तर गाथाओं में है। इस दृष्टि से मूल ग्रन्थ बहत्तरवीं गाथा पर ही समाप्त हो जाता है । तिहत्तरवीं गाथा में केवल कुछ संख्यायें दी गयी हैं। उन संख्याओं का योग बहत्तर होता है। लगता है, ग्रन्थकार ने इस गाथा में मूल ग्रन्थ की विषय- प्रतिपादक गाथाओं की संख्या का कूट-शैली में ठीक-ठीक आकलन किया है। उक्त तिहत्तरवीं गाथा इस प्रकार है :
दो तिनि पंच अट्ठा पंच य अट्ठा य तह य दो तिन्नि। चारिक्क सत्त छक्का सत्त च्छक्का य चारिक्का । ।
अर्थात् दो तीन पाँच आठ पाँच आठ दो तीन चार एक सात छह सात छह चार एका
उपर्युक्त संख्याओं का यो बहत्तर है और गाथाओं में ही विषय-वस्तु का प्रतिपादन भी है। इन संख्याओं को क्रमशः चार-चार के समूह में विभक्त कर उसी क्रम से चार पंक्तियों में इस प्रकार लिखने पर दायें, बायें, ऊपर और नीचे गिनने पर एक पंक्ति में लिखी संख्याओं का योग अट्ठारह और चारो पंक्तियों का योग बहत्तर होता है
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एक कोण से दूसरे कोण की ओर सीधे गिनने पर भी प्रत्येक कोण पर अट्ठारह की संख्या प्राप्त होती है। संभवत: इस गाथा द्वारा मूल विषय प्रतिपादक गाथाओं की संख्या को प्रक्षेप से बचाने का प्रयास किया गया है।
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