Book Title: Sramana 2004 01
Author(s): Shivprasad
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 274
________________ गाहा: सुसमत्यो वि हु जो जणय-अज्जियं संपयं निसेवेइ । सो मि! ताव लोए ममंव उवहासयं लहइ ।।२३२।। सुसमर्थोऽपि खलु यो जनकार्जितां संपदं निषेवते । सो अम्बे ! तावल्लोके ममैवोपहासतां लभते ॥२३२॥ अर्थ : समर्थपुत्र पण जो पिताजी वड़े अर्जित करेली लक्ष्मीने वापरे (भोगवे) तो हे माता ! ते लोकोमा मारी जेम उपहासने पामे छे। (हास्य पात्र बने छे)" हिन्दी अनुवाद :- समर्थपुत्र भी यदि पिताजी द्वारा प्राप्त लक्ष्मी का उपभोग करे तो हे माता ! वह लोक में मेरी तरह हास्य पात्र बनता है।" गाहा : इय भणिउं धणदेवो अंसु-जलुप्फुण्ण-लोयणो सहसा । मुक्कलह इह भणंतो पडिओ जणणीए चलणेसु ।।२३३।। छायां : इति भणित्वा धनदेवोऽशु-'जलापूर्णलोचनः सहसा । बन्धनमुक्तमित भणन् पतितो जनन्याश्चरणयोः ॥२३३॥ अर्थ :- आ प्रमाणे कहीने अश्रुओथी भींजाइ गयेली आँखोवाळो धनदेव माताना चरणोगां जाणे कोइ बंधनथी मुक्त थतो होय तेम एकदम पड्यो। हिन्दी अनुवाद :- इस प्रकार कहकर जैसे कोई बन्धन से मुक्त होता हो वैसे अश्रुयुक्त नयनवाला धनदेव माता के चरण में सहसा गिर पड़ा। गाहा : पितानी अनुज्ञा तो धणधम्मो सेट्ठी नाउं अवसाण-कारणं तस्स । . वज्जरइ पुत्त ! को तुज्झ वंछिए कुणइ विग्धंति ? ।।२३४।। छाया : ततो धनधर्मश्रेष्ठी ज्ञात्वा अवसान-कारणं तस्य । कथयति पुत्र ! कस्तव वाञ्छिते करोति विघ्नमिति |२३४|| अर्थ :- त्यार पछी धनधर्मश्रेष्ठीए तेनी (पुत्रनी) इच्छा जाणीने का, “हे पुत्र ! तारी इच्छामां कोण अंतराय करे ?" हिन्दी अनुवाद :- तत्पश्चात् धनधर्मश्रेष्ठी ने अपने पुत्र की इच्छा जानकर कहा - "हे पुत्र ! तेरी अभिलाषा को कौन रोक सकेगा?" गाहा : जणएणं से जणणी पुत्त-विओगं अणिच्छमाणीवि । कहकहवि हु संठविया विनाय सुयावमाणेण ॥२३५।। १. उफ्फुण्ण दे. आपूर्ण २. मुक्कलह दे. बन्धनमुक्त-दे - 68 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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