Book Title: Sramana 2004 01
Author(s): Shivprasad
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

View full book text
Previous | Next

Page 277
________________ गाहा : अन्नं च जीए लोया नीइ-पहाणस्स पुहइपालस्स । नयरीए इव न कुणंति कहवि उम्मग्ग-संचरणं ।।२४३।। छाया : अन्यच्च यस्यां लोका नीति-प्रधानस्य पृथ्वीपालस्य । नगर्यामिव न कुर्वन्ति कथमपि उन्मार्ग-संचरणम् ॥२४॥ अर्थ :- अने बीजु न्याय नीति प्रधान राजाना नगरनी जेम जेमां लोको क्यांय पण उन्मार्गनुं संचरण करता न हता। (उन्मार्गे जतां नही)। हिन्दी अनुवाद :- और दूसरा न्याय-नीति प्रधान राजा के नगर की तरह जिसमें लोग कहीं भी उन्मार्ग का आचरण नहीं करते थे। गाहा : वियडाडवीए तीए मज्झमझेण वयइ सो सत्थो । निय-कोलाहल-पडिरव-पडिपूरिय-जुन्न-तरु-विवरो ॥२४४।। छाया: विकटाटव्यास्तस्याः मध्यमध्येन बजति स सार्थः । निज-कोलाहल-प्रतिरव-प्रतिपरित जीर्णतरुषिवरः ॥२४४॥ अर्थ :- पोताना कोलाहलना पडघाथी जीर्ण वृक्षोना बखोल पूराई गया छे तेवो ते सार्थ ते भयंकर जंगलनी मध्यमां थईने जतो हतो। हिन्दी अनुवाद :- अपने कोलाहल के प्रतिघात से जीर्ण वृक्षों के खड़े भी भरा गये हैं वैसा वह सार्थ उस भयंकर जंगल के मध्य में होकर जा रहा था। गाहा : तुंग-तरु-नियर-साह-प्पसाह-संछन-अंबरत्तणओ सव्वंपि वहइ दियहं अलग्ग-रवि-किरण-संतावो ।।२४५।। छाया: तुङ्ग-तरू-निकर-शाखा-प्रशाखासंघमाम्बरत्वतः । सर्वमपि वहति दिवसमलग्न-रविकिरण-संतापः ॥९४५॥ अर्थ :- ऊंचा वृक्षोना समुदायनी शाखा-प्रशाखाओ बड़े ढंकायेलु आकाश होवाथी नहीं लागेला सूर्यना किरणना संतापवाळो आखोय दिवस पसार थतो हतो।। हिन्दी अनुवाद :- ऊंचे वृक्षों के समुदाय से शाखा-प्रशाखाओं द्वारा व्याप्त आकाश होने से सूर्य के किरणों के संताप से रहित पूरा दिन निकल जाता था। कवि-कय-गुरुतर-वोक्कार-सवण-सहसुत्तसंत-बहु-वसहो । उत्ससिय-वसह-वालण-निमित्त-पमुक्क-हक्कारो ॥२४६।। 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298