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छाया:
जन्मसमयानन्तर-सुमेरुशिखराभिषेकसमये सङ्क्रन्दन-कृतकुविकल्प-नाशने कृतप्रयत्नस्य ॥६॥ रागादिवैरि-सेनेव यस्य दृष्ट्वाऽनन्यसामर्थ्यम् । 'कम्पितात्यर्थ
सशिलोच्चसागरवसुधा ॥७॥ निर्मल-कम-नख-निकरः, प्रतिबिम्बित-प्रणत-त्रिभुवनो यस्य । उद्वहति जात-गर्वः केवलज्ञानस्य स्पर्दाम ॥८॥ यस्य च प्रणाममात्रात् निर्मलकमनखपतितप्रतिबिम्बाः । एकादशगुणमुपलभ्यात्मकं हर्षिताः त्रिदशाः ॥९॥ तं वन्दे जिनचन्द्रं देवेन्द्रनरेन्द्रवृन्दवन्दितकम् ।
सिद्धार्थनरेन्द्रसुतं चरमं चरमां गतिं प्राप्तम् ।।१०।। अर्थ :- जे महावीरस्वामीना जन्म समये मेरुशिखर उपर अभिषेक समये इन्द्र द्वारा करायेला कुविकल्पना नाश करवामा प्रयत्नवाळा (प्रभुए) रागादि वैरी सेनानी (बेहाली करी) जेमतेम तेमना रागादि ने काठवाना अनन्य सामर्थ्यने जोइने पर्वत-सागर सहित पृथ्वी अत्यंत ध्रुजवा लागी।।
नमेला त्रणभुवन (ना लोको) प्रतिबिम्बित थयेल छे जेमा तेवा (प्रभु) चरणना नखनो समूह (पोताने) थयेला गर्ववाळो केवलज्ञाननी स्पर्दा करे छ।
जेमना प्रणाम मात्रथी निर्मळ चरणनां नखमां पड़ी रहेला (पोताना) प्रतिबिम्बथी अग्यार गणा रूपने प्राप्त करीने देवो खुश थाय छे।
देवेन्द्र नरेन्द्रना समुदायथी वंदित, जिनोमां चन्द्र, चरमगतिने पामेला, सिद्धार्थनरेन्द्रना पुत्र चरम महावीरस्वामीने हुं वन्दन करू छु। हिन्दी अनुवाद :- जिन महावीर स्वामी के जन्म समय पर मेरु शिखर के ऊपर अभिषेक के समय इन्द्र के द्वारा मन में किये गये कुविकल्प के नाश करने वाले प्रभु ने जिस तरह से रागादि शत्रु सेना की बेहाली की, उसी तरह रागादि को निकालने का प्रभु का अनन्य सामर्थ्य देखकर पर्वत-सागर के साथ पृथ्वी अत्यंत कांपने लगी।
झुके हुए तीन भुवन के लोग जिनमें प्रतिबिंबित हुए हैं वैसे प्रभु चरण के नाखून का समूह खुद को हुए घमंड से केवलज्ञान के साथ स्पर्धा कर रहा है।
जिनको प्रणाम करने मात्र से उनके निर्मल चरण के नाखून में पड़ रहे (प्रतिबिम्बित) अपने प्रतिबिंब से ग्यारह गुणा रूप को प्राप्त करके देव खुश हुए।
देवेन्द्र-नरेन्द्र के समुदाय से वंदित, जिनों में चन्द्र समान, चरमगति याने मुक्ति को पाए हुए सिद्धार्थ नरेन्द्र के पुत्र चरम तीर्थपति महावीरस्वामी को मैं वंदन करता है।
११. थरहरिया-देश्य २. समसीसी दे. स्पर्धा
(ज्यां - ज्यां काउसमां शब्दो मूक्पा छे ते विशेष थी समज्ञावा - स्पष्टता माटे छे)
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