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गाहा :- जओ :
छाया : यतः ।
सालंकारेण घणक्खरेण रंजिज्जए जणो पयडत्थ - ललिय- कव्वं अबुहाणं बोहणं काव्यनी विविधता घनाक्षरेण रज्यते जनो विबुधः । करोति ॥३७॥
सालंकारेण प्रकटार्थललितकाव्य मबुधानां
बोधनं
अर्थ :- कारण के।
अलंकारवाळा, (कठिन) घनाक्षर (ध्वन्यर्थ) काव्य वड़े विद्वान् लोक खुश थाय छे। ज्यारे प्रकट अर्थवालु मनोहर काव्य सामान्य लोकोने बोध आपे छे । (खुश करे छे)।
हिन्दी अनुवाद :अलंकार-युक्त कठिन (ध्वन्यर्थ) काव्य से विद्वान् लोग खुश होते हैं, जबकि प्रकट अर्थवाले मनोहर काव्य से सामान्य लोग भी बोध पाते हैं। (खुश होते हैं)।
गाहा :
छाया :
दोह वि एक्कवए च्चिय सक्किज्जइ रंजणं न काऊणं । एक्कं गेण्हंताणं अवस्स किर नासए
विबुहो । कुणइ ।। ३७।।
द्वयोरपि एकपदे एव शक्यते एकं गृहणत्तामवश्यं किल अर्थ :- आ बन्ने वस्तुओ एक ज काव्यनी अंदर एकी साथै आनंद आपवा समर्थ नथी । एकनुं ग्रहण करतां अवश्य बीजुं नाश पामे छे। (अर्थात् पंडितोने खुश करवा जतां सामान्य लोको नाखुश थाय अने सामान्य लोकोने आनन्द आपवा जतां पंडितो नाराज थाय) ।
छाया :
हिन्दी अनुवाद :- ये दोनों बातें एक ही काव्य के अंदर एक साथ में आनंद अर्पण करने में समर्थ नहीं है, एक के ग्रहण में दूसरे का अवश्य विनाश होता है। (अर्थात् पंडितों को खुश करने से सामान्य लोग नाखुश होते हैं और सामान्य लोग को आनन्द देने से पण्डित नाराज होते हैं)।
गाहा :
बीयं ||३८||
रज्जनं न कर्तुम् । नश्यति द्वितीयम् ॥३८॥
निय गुरु-कम-प्यसाया कावि हु सत्ती उ जइवि मह अत्थि ।
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उवमा - सिलेस- रूवग-वण्णग-बहुलम्मि
कव्वम्मि ||३९|
तहवि हु तयं न कीरइ असमत्थं पत्थुअम्मि जं तो अबुह बोहणत्थं पयडत्था कीरए
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निज-
-गुरु-कम- प्रसादान् कापि खलु शक्तिस्तु यद्यपि ममास्ति । उपमा-श्लेष-रूपक-वर्णक-बहुले काव्ये ||३९| तथापि खलु तकं न क्रियते असमस्तं प्रस्तुते यदर्थे । तस्मादबुधबोधनार्थम् प्रकटार्था
क्रियते एषा ॥४०॥
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अत्थे ।
एसा ||४०||
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