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छाया:
उपविष्टौ भूमौ राज्ञा भणितः कुतोऽसि त्वं भद्र ? ।
केन वा कार्येण इह समागतो मम समीपम् ॥४४॥ अर्थ :- व्यारबाद राजाए कहयु “तेने जल्दी प्रवेश कराव" त्यार बाद विधिपूर्वक राजसभामा प्रवेशेलो, करेला विनयवाळो राजानी आगळ पृथ्वी उपर बेठो राजा वड़े तेने पूछायुं हे भद्र ! तुं क्याथी आव्यो छे ! अथवा कया कार्य बड़े अहीं मारी पासे आवेलो छे ? हिन्दी अनुवाद :- फिर राजा ने कहा “उनको जल्दी प्रवेश कराइए" पश्चात् विधियुक्त राजसभा में प्रविष्ट चित्रकार विनयान्वित होकर राजा के आगे पृथ्वी पर बैठा। राजा ने उससे पूछा- हे भद्र! तू कहाँ से आया है ? अथवा किस कार्य से यहाँ मेरे पास आया है ? गाहा :__ तो भणइ चित्तसेणो कुसग्गनयराउ आगओ देव!।
चित्तगरो साइसयं जाणामि य चित्त-कम्ममहं ।।८५।। छाया:
ततो भणति चित्रसेनः कुशाग्रनगरादागतो देव! ।
चित्रकारः सातिशयं जानामि च चित्रकर्म अहम् ।।८५।। अर्थ :- त्यार पछी चित्रकार चित्रसेने कहयु - हे देव ! हुं कुशाग्रनगरथी आव्यो. छु अने सुंदर चित्रकळाने जाणु छु। हिन्दी अनुवाद :- बाद में चित्रकार चित्रसेन ने कहा - हे देव ! मैं कुशाग्रनगर से आया हूँ और सुंदर चित्रकला को जानता हूँ। गाहा :
चित्त-प्पिओ य देवो सुम्मइ वत्तासुं तेण अहमेत्थ । चित्त-कलं पयडेउं समागओ देव-पासम्मि ।।८६।।
छाया:
चित्रप्रियश्च देवः श्रूयते वार्तासु तेनाऽहमन्त्र ।
चित्रकला प्रकटयितुं समागतो देवपार्श्वम् ॥८६॥ अर्थ :- आपश्री चित्र प्रिय छो एवं वातोमां संभळाय छे। तेथी हुं अहींयां चित्रकळाने प्रगट करवा माटे देव एवा आपनी पासे आव्यो छु। हिन्दी अनुवाद :- "आप श्री चित्र प्रिय हो ऐसी लोक-मान्यता है। अत: मैं चित्रकला को प्रगट करने हेतु यहाँ, हे देव ! आपके पास आया हूँ।" गाहा :
तत्तो रन्ना भणियं केरिसयं चित्त-कोसलं तुज्झ ? । दंसेहि ताव मझं आलिहियं किंचि वर-रूवं ।।८७॥
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