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गाहा :
इय पुज्ज-पणइ-करण-प्पणासियासेस-विग्घ-संघाओ ।
वोच्छं संवेगकर कहं तु सुरसुंदरिं नाम ।।१७।। छाया:
इति पूज्यप्रणतिकरणप्रणाशिताशेषविघ्नसंघातः ।
वक्ष्ये संवेगकरिं कथां तु सुरसुन्दरी नाम ||१७॥ अर्थ :- आ प्रमाणे पूज्योने प्रणाम करवा द्वारा नाश पामेला विघ्नना समुदाय वाळो (हुं) संवेगने करनारी एवी सुरसुन्दरी नामनी कथा ने कहीशहिन्दी अनुवाद :- इस प्रकार पूज्यों को प्रणाम करके नष्ट हुए विघ्न के समुदायवाला मैं संवेग करनेवाली सुरसुन्दरी नाम की कथा कहूंगा। गाहा :
अन्नं, च, तस्स कीरइ पढमं चिय पत्थणा खल-जणस्स ।
बीहेइ कवि-जणो जस्स मूसओ इव बिरालस्स ।। छाया :
अन्यच्च तस्य क्रियते प्रथममेव प्रार्थनाखलजनस्य ।
बिभेति कविजनो यस्मात् मूषक इव बिडालात् ॥१८॥ अर्थ :- अने वळी बिलाडाथी जेम उंदर डरे छे तेम कविजनो दुर्जनथी डरे छे माटे पहेला ज दुर्जन ने प्रार्थना कराय छे। हिन्दी अनुवाद :- और फिर बिल्ली से जैसे चूहा डरता है वैसे कविजन दुर्जन से डरते हैं इसीलिए पहले दुर्जन की ही प्रार्थना होती है। गाहा :
अहवा सहावउच्चिय दोस-ग्गहणम्मि वावड-मणस्स ।
अब्भत्थणा-सएहि वि न खलस्स खलत्तणं गलइ ।।१९।। छाया :
अथवा स्वभावत एव दोषग्रहणे व्यापृतमनसः ।
अभ्यर्थना शतैरपि न खलस्य खलत्वं गलति ॥१९॥ अर्थ :- अथवा स्वभावथी ज जेमनुं मन दोष ग्रहण करवामां ज लागेलु छे। तेमने सेंकडो बार प्रार्थना करवा छतां पण ए दुर्जनोनुं दुर्जनपणु गळवा- नथी। . (छूटवानुं नथी) हिन्दी अनुवाद :- अथवा स्वभाव से ही जिनका मन दोष ग्रहण करने में है उनको हजारों बार प्रार्थना करने पर भी उनकी दुर्जनता दूर नहीं होती है। गाहा :
कुडिलत्तणं न उज्झइ 'परिच्छिद्द-गवेसओ य दोजीहो । पत्थिज्जंतो वि कवीहिं दुज्जणो सप्प-सारिच्छो ।।२०।।
१. परिच्छिद्रः = सर्पपक्षे छिद्रं = बिलं, दुर्जनपक्षे = दूषणम्
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