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साधारण सिद्धसेनसूरि रचित 'विलासवईकहा' (विलासवतीकथा)
श्रमण, वर्ष ५५, अंक १-६ जनवरी- जून २००४
डॉ० वेद प्रकाश गर्ग *
हिन्दी के प्रेमाख्यानक काव्यों की पृष्ठभूमि का निर्माण प्राकृत एवं अपभ्रंश भाषाओं की साहित्यिक रचनाओं में हो गया था । यह परम्परा उसे रिक्थ रूप में उक्त भाषाओं की कृतियों से प्राप्त हुई, क्यों कि दोनों ही भाषाओं में इस प्रकार की रचनाएं पहले ही लिखी जा चुकी थीं। वर्ण्य विषय, शैली, छंद तथा प्राकृत अपभ्रंश-काव्यों के प्रबंध - शिल्प के अनुरूप जो प्रेमाख्यानक काव्य रचे गए उनका मूल स्रोत उक्त काव्य - साहित्य ही है। अपभ्रंश में रचित प्रेमाख्यानक काव्यों की जो परम्परा मिलती है, वह भी प्राकृत के प्रेमाख्यानक काव्यों से विकसित हुई है।
जन-जीवन में प्रचलित रहने वाली लोक कथाओं को अपनाकर लिखे जाने वाले काव्य तत्कालीन साहित्य के विशिष्ट अंग रहे हैं। उस युग की प्रेम काव्य परम्परा के अनुरूप ही लिखी जाने वाली अपभ्रंश की एक रचना विलासवईकहा (विलासवती कथा) है, जो विषय-वस्तु, शैली एवं प्रबंध रचना की दृष्टि से प्रेमाख्यानक काव्य परम्परा की एक कड़ी विशेष है । प्रस्तुत लेख में अपभ्रंश के इसी प्रेमाख्यानक काव्य के संबंध में परिचयात्मक रूप से लिखा जा रहा है।
विलासवईकहा (विलासवतीकथा) नामक इस कथा - काव्य का सर्वप्रथम परिचय पं० बेचरदास जी दोशी ने भारतीय विद्या पत्रिका में दिया था । तदनन्तर सन् १९५६ में डॉ० शम्भू नाथ सिंह ने हिन्दी महाकाव्य का स्वरूप - विकास नामक अपने शोध प्रबंध में इसका अत्यन्त संक्षिप्त परिचय दिया था। श्री अगरचन्द जी नाहटा प्रभृति विद्वानों ने भी अपने लेखों के माध्यम से यदा-कदा इसकी चर्चा की है। इस कथा की दो ताड़ - पत्र प्रतियाँ जैसलमेर के ग्रंथ भंडार में सुरक्षित हैं। संभव है, अन्यत्र भी इसकी प्रतियाँ हों।
विलासवतीकथा के लेखक श्वेताम्बर जैन मुनि सिद्धसेनसूरि थे। संभवत: उनका गृहस्थ जीवन का नाम 'साधारण' था इसलिए उन्हें 'साधारण सिद्धसेनसूरि' कहा जाता है। जैन साहित्य में सिद्धसेन नामक चार विद्वान् आचार्य हुए हैं। पहले आचार्य सिद्धसेन दिवाकर थे, दूसरे सिद्धसेन, तीसरे साधारण सिद्धसेन और चौथे
१४, खटीकान, मुजफ्फरनगर ( उ०प्र०)
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