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श्रमण आचार व्यवस्था-ऐतिहासिक पृष्ठभूमि : ७५
४- परदारञ्च अर्थात् परस्त्रीगमन से विरति, ५- सुरामेरयपानन्च अर्थात् मद्यपान से विरति,
श्रमणों हेतु बुद्ध के मार्ग में बाह्य आचरण की शुद्धि और मानसिक अभ्यास दोनों पर बल था। आचरण-शुद्धि को अत्यन्तावश्यक माना गया है परन्तु मानसिक अभ्यास या ध्यान को किंचित ऊँची कोटी में रखा गया है। क्योंकि इसी से ज्ञान की प्राप्ति सम्भव होती है। इसी प्रकार बार-बार आत्मनिर्भरता और सत्य के स्वयं साक्षात्कार पर बल दिया गया है। इस प्रकार का जीवन जीने वाला 'भिक्षु' होता है। निन्दा और स्तुति से मुक्त, राग और द्वेष से उपरत विशिष्ट सर्वोत्तम स्वलक्ष्य की दिशा ही उसके जीवन की मंगलयात्रा होती है। भिक्षु के संयमी जीवन की यह वास्तविक संहिता है।
श्रमण आचार सम्बन्धी उपर्युक्त विवेचनों से स्पष्ट है कि, श्रमण जीवन शैली के कुछ विशिष्ट आचार-विधान थे जो विशुद्ध निवृत्तिपरक थे। बौद्ध-जैन साहित्य एवं प्रारम्भिक वैदिक साहित्य के आधार पर अब यह स्वीकार किया जाने लगा है कि, श्रमण जीवन पद्धति वैदिक अथवा ब्राह्मण जीवन के समानान्तर प्रतिष्ठित थी; जिसकी प्राचीनता वैदिक किम्वा प्राग्वैदिक है। निवृत्तिमूलक जीवन दृष्टि के तत्व ऋग्वेद से लेकर उत्तर वैदिक साहित्य तक अनेकत्र बिखरे पड़े हुए हैं। यह सुविदित है कि, वैदिक जीवन की दृष्टि प्रवृत्तिमार्गी थी जबकि उपनिषदों में प्रवृत्ति और निवृत्ति का हमें संश्लेषण दिखायी देता है। विद्वानों में यह विवाद का विषय रहा है कि वैदिक परम्परा में निवृत्ति जीवन दृष्टि इस परम्परा होने वाले स्वभाविक विकास का परिणाम है अथवा किसी अन्य परम्परा का प्रभाव है। अब विद्वानों का झुकाव इस बात की
ओर है कि निश्चय ही वैदिक परम्परा में निवृत्त जीवन दृष्टि का समावेश श्रमण परम्परा के साथ उसकी अन्तः क्रिया का प्रतिफल है।
यद्यपि प्राग् बुद्ध एवं महावीर काल में श्रमण आचार व्यवस्था किस प्रकार की थी, इसके सम्बन्ध में साक्ष्य अत्यल्प हैं तथापि उनके आधार पर तथा इस कल्पना के आधार पर कि, यदि कोई निवृत्तिमूलक आध्यात्मिक जीवन दृष्टि है तो अश्वमेव इसके कुछ विशिष्ट आचार विधान रहे होंगे।
___ यदि हम जैन परम्परा पर दृष्टिपात् करें तो हमें ज्ञात होगा कि, पार्श्वनाथ का चातुर्याम धर्म बुद्ध और महावीर से दो शताब्दियों के पूर्व प्रचलन में था। पार्श्वनाथ का चातुर्याम प्रत्यक्ष रूप से और कुछ नहीं आचार विधान है; जो इस बात का संकेत देता है कि श्रमण परम्परा के विभिन्न सम्प्रदायों में प्रतिष्ठित पंच महाव्रत किसी अन्य परम्परा से अपनाएं गये आचार विधान न होकर स्वयं इस परम्परा के अपने मौलिक विधान हैं। हर्मन जैकोबी का यह मन्तव्य कि 'जैनों और बौद्धों में आचार सम्बन्धी विधानों को धर्म-सूत्रों से ग्रहण किया था; स्वीकार नहीं किया जा सकता है।
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