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जैन दर्शन एवं योगवासिष्ठ में मृत्यु विचार : १०५
जैन धर्म में समाधिमरण का उद्देश्य देह का विनाश करना नहीं है अपितु उस स्थिति में जब शरीर का त्याग अपरिहार्य हो गया हो तब उसके पोषण के प्रयत्नों को त्याग करके उसके प्रति ममत्व को दूर कर लेना है, ताकि देहत्याग की बेला में चित्त की समाधि बनी रहे। समाधिमरण का निश्चय चित्त की विकलता को दूर करने के लिए किया जाता है। अत: जैन धर्म में समाधिमरण को साधना का एक अंग माना गया है, जिसकी सहायता से मन में आए विकलता के भाव को दूर किया जा सके। व्यक्ति में सबसे अधिक राग अपने शरीर के प्रति ही होती है और शरीर के प्रति यह लगाव समाधिमरण के निश्चय द्वारा ही छोड़ी जा सकती है। इसीलिए समाधिमरण साधना का सर्वश्रेष्ठ रूप माना गया है।१६
राग-द्वेष बन्धन के मूल कारण हैं। इन्हीं के कारण व्यक्ति अपने-पराये के बोध से ग्रसित रहता है तथा संसार के इस भव चक्र में उलझता रहता है, लेकिन समाधिमरण करने वालों को अपने-पराये तथा सांसारिक वस्तुओं से किसी तरह का लगाव नहीं रहता है। वह निर्लिप्त हो जाता है और निर्लिप्तता की इस स्थिति में जन्म-मृत्यु के भय से ऊपर उठ जाता है तथा जीवन और मृत्यु दोनों ही परिस्थितियों में समभाव बनाए रखता है। उसके मन में उच्चकोटि के विचार उठते हैं तथा वह सोचता है कि यह शरीर मेरा नहीं है। मैं किसी काल में इस शरीर का नहीं हूँ। यह शरीर जन्म, जरा-मरण से युक्त है, रोग, आधि-व्याधि से घिरा हुआ है। सुख या कष्ट इस देह को होता है, मुझे नहीं। संसार में सम्पत्ति या विपत्ति, संयोग या वियोग, जन्म या मरण, सुख या दुःख, मित्र या शत्रु जो कुछ भी होता है वह सभी पूर्व में किए गए पाप-पुण्य का फल है। मैं एक ज्ञायक स्वभाव वाला हूँ। उसी का कर्ता, भोक्ता और अनुभवकर्ता हूँ। ज्ञायक का स्वभाव तो अविनाशी है, उसका किसी भी तरह विनाश नहीं होता है। वह तीनों कालों में अबाधित और अचल है। अतः यह शरीर रहा तो क्या? गया तो क्या? इसलिए शरीर पर से पूर्णत: अपने ममत्व का त्याग करता हूँ। मैं समाधिमरण व्रत करके मोक्ष को प्राप्त करना चाहता हूँ।१७
जैन धर्म में समाधिमरण की महत्ता इसी से परिलक्षित होती है कि प्रत्येक जैन मुनि एवं श्रावक अपनी उपासना के अन्त में यही कामना करता है कि - मैं समाधिमरण में प्रवृत्त होकर इस मार्ग को सुखपूर्वक पार कर सकूँ। इसके लिए वीतरागदेव समाधि तथा बोधि एवं कल्याणकारी पथ प्रदान करें, जिससे मैं मुक्ति प्राप्त कर सकूँ।१८ अर्थात् समाधिमरणरूपी पथ पर चलकर मुक्ति प्राप्त की जा सकती है।
योगवासिष्ठ के अनुसार चेतन पुरुष न तो कभी जन्म लेता है और न कभी मरता है, ('न जायते म्रियते वा विपश्चित' यह श्रुति है) प्रान्त पुरुष ही स्वप्न काल के भ्रम के समान जन्म, मरण आदि को देखता है।१९
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